Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 160
________________ सब विषाक्त हो गया था । उस ओर बहने वाली हवा भी इतनी विषाक्त हो जाती थी कि कोई भी पशु- पक्षी या मनुष्य भूल से उधर आ निकलता, तो वहीं तत्काल मृत्यु के मुख में पहुँच जाता । विशाल वन के हरे भरे वृक्ष भयंकर विष के कुप्रभाव से जलकर ठूंठ हो गए थे और अनेक ठूंठ होते जा रहे थे । · यह नहीं, कि इस विषधर को वश में करने या समाप्त करने में कोई कोर कसर रखी गई। अनेक मांत्रिक, तांत्रिक, गारुड और सिद्ध योगी विषधर को समाप्त करने की हुंकार भरी गर्जना करते आए और प्रयोग करते रहे । कुछ ने तो इस प्रक्रिया में अपने प्राण भी दे दिए। फिर भी किसी से कुछ भी नहीं हुआ । - · t भगवान् महावीर साधना - काल की विहार-चर्या में उस पथ से जा रहे थे । शताधिक आबाल वृद्ध लोंगों ने उन्हें उस ओर जाने से मना किया । किन्तु महावीर, महावीर थे । उनके अन्तर् मन का महावीर क्या सोच रहा था, और वह क्या करना चाहता था ? यह तो तब पता चला, जब वे सीधे नागराज चण्डकौशिक के बिम्ब - द्वार पर ही पहुंच गए। चण्डकौशिक की विष- दृष्टि एवं विष वर्षी फुंकार कुछ काम न कर सकी । यहाँ तक कि अन्तिम प्रहार के रूप में किया गया तीव्र दंश भी विफल हो गया । चण्डकौशिक ज्योंही शिथिल पड़ा, त्योंही भगवान् ने अपनी अमृतमयी दयार्द्र-वाणी से उसे सम्बोधित किया । अन्ततः परिणाम यह आया, कि चण्डकौशिक सर्प केवल शरीर से ही सर्प रह गया, अन्दर में मन, बुद्धि, चित्त, अहं से वह देवत्व को उपलब्ध हो गया । अन्तश्चेतना का अंधकार विकारों का अंधकार है । किसी महान् सद्गुरु के सम्बोध से ज्यों ही वह अंधकार नष्ट होता है, त्योंही दिव्य - प्रकाश जगमगाने लगता है । यही देवत्व है । इसी के सम्बन्ध में भारत के पुरातन ऋषियों की वाणी है ------ " प्रकाश लक्षणा देवा: ।" आप इतिहास की आँख से देखेंगे, तो जनता के मन में हर्ष और आनन्द का क्षीर सागर कितना अधिक तरंगित होने लगा होगा ? अभी तक उक्त प्रदेश में यह अज्ञात नामा महर्षि अवश्य ही ईश्वरीय चमत्कार की परिकल्पनाओं में पहुँच गया होगा । भगवान् महावीर, महावीर क्यों हैं ? : १४७ - Jain Education International - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 158 159 160 161 162 163 164 165 166