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कर पाती है । नगर के द्वार बन्द कर दिए हैं। तापसों के आश्रम उजड़ गए हैं। बड़े - बड़े धुरन्धर चमत्कारी कहे जाने वाले सिद्धयोगी कुछ मारे गए हैं और शेष दूराति दूर स्थानों में भाग गए हैं । भयानक स्थिति है । स्वर्गोपम राजगृह का वैभव शव भूमि के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है । समग्र नगरी में से गगन को भी प्रकंपित करने वाली एकमात्र रुदन की आवाज के सिवा और कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती है । हम यहाँ पर भी किसी धर्म गुरु को इन दिनों में शान्ति स्थापना हेतु आते नहीं देख पाते हैं । परन्तु, महावीर आते हैं, अपने संघ के साथ | अर्जुन को प्रतिबोध मिलता है। उसके अन्दर का राक्षसत्व मर जाता है, और सोया हुआ देवत्व जाग उठता है । महाप्रभु के चरणों में दीक्षित हो जाता है । यह दीक्षा केवल किसी विविष्ट क्रिया काण्ड की नहीं है, अपितु जीबन - परिवर्तन की दीक्षा है। महावीर इस जीवन- परिवर्तन की दीक्षा में ही विश्वास करते हैं और उसे घृणित एवं तिरस्कृत व्यक्तियों के जीवन में भी दिव्यत्वेन रूपायित करते हैं ।
ये कुछ उदाहरण हैं, जो महावीरत्व की एक झांकी के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं । महावीरत्व की द्योतक इतिहास की अनेक घटित घटनाओं में से कुछ तो अक्षर-बद्ध ही नहीं हुई हैं और कुछ जो अक्षरबद्ध हुई हैं, वे प्रमत्त भाव के कारण स्मृति पथ पर से इधर-उधर बिखर गई होंगी । फिर भी जो प्राप्त हैं, वे महत्त्व - पूर्ण हैं । महवीर, सत्य के पक्षधर हैं । वे किसी की भक्ति के प्रदशित रूपों में आबद्ध नहीं होते, फलतः सत्य का अपलाप नहीं करते । यही वह सत्य की पक्षधरता थी, कि अजातशत्रु और चेटक के युद्ध में भगवान् महावीर ने अजातशत्रु की राजधानी चम्पा में अजातशत्रु द्वारा प्रवर्तित किए गए युद्ध का विरोध किया । असाधारण महापुरुष ही ऐसा कर सकते हैं। ऐसे महापुरुषों के लिए ही कहा गया था कभी
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"नास्ति सत्यात् परो धर्म...... सत्ये नास्ति भयं वचित.
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स्वयं श्रमण भगवान् महावोर ने भी कहा था"सच्चमि धिहे कुव्वाह"
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चिन्तन के झरोखे से :
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