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महाभारत युग की दो वीर माताएं
मानव जाति की मणिमय पारिवारिक श्रृंखला में माता का स्थान शिखर स्थानीय सर्वोत्तम मणिरत्न के रूप में है । वह सृजन की देवी है । वह अपनी संतति के मात्र तन का ही सृजन नहीं करती है, अपितु, मन बुद्धि और चित्त के उदात्त संस्कारों का भी सृजन करती है । सुशिक्षित, उदात्त, संस्कारापन्न माता परिवार में स्वर्गीय दिव्यता का अवतरण कर सकती है । यह दिव्य सृजन ही माता का तत्त्वतः मातृत्व है ।
तन के सृजन का अधिक महत्त्व नहीं है । तन के सृजन की माँ तो पशु पक्षी कीट पतंग जलचर आदि अन्य क्षुद्र प्राणियों के यहाँ भी मिल सकती है किन्तु, वह माता मात्र अल्प कालावधि तक ही रहती है । शरीर के अमुक काल तक के पोषण तक ही परिसीमित रहती । तदनन्तर न वह माता, न वह संतान, संतान । माता और संतति का समान स्थायी संबंध जैसा वहाँ कथमपि नहीं है ।
माता रहती है और मानव जाति के
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मातृ - जाति का इतिहास गौरवपूर्ण इतिहास है । उसके द्वारा दीन-हीन एवं क्षीण होती हुई संतति को वह तेजस्वितापूर्ण चेतना मिली है कि मानो मुर्दे पुनः जीवित हो उठे हैं । शव में शिवत्व जागृत करनेवाली परिवार में माता ही रही है । अन्य देशों के इतिहास को एक ओर छोड़ देता हूँ । भारत के इतिहास के ही इस संबंध में स्वर्णिम पृष्ठ जिज्ञासु पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ ।
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महाभारत हमारे समक्ष है । पुरुषोत्तम वासुदेव, नारायण श्री कृष्ण, पाण्डव और कौरव के बीच होनेवाले, बन्धु - युद्ध की निवृत्ति के लिए अपनी विश्व विश्रुत गरिमा की कुछ भी चिन्ता न
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