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पुत्र ! अपने क्षत्रिय धर्म को लक्ष्य में रखकर पराक्रम प्रकट कर अथवा उस गति को प्राप्त हो जा, जो समस्त प्राणियों के लिए सुनिश्चित है। अन्यथा तू किसलिए जी रहा है ? अर्थात् इस प्रकार अर्थहीन जीने का क्या उद्देश्य है ?
"उदभावं यस्य वीर्य वातां वा गच्छ ध्र वां गतिम् ।
धर्म पुत्राग्रतः कृत्वा किं निमित्तं हि जीवसि ॥"१७ कायर ! तेरे लोक जीवन सम्बन्धी इष्ट और आपूर्त कर्म नष्ट हो गए हैं और सूखोपभोग का साधन राज्य भी छीन लिया गया है। फलतः सारी कीर्ति विनष्ट हो गई है। बता, अब तू किसलिए जी रहा है ?
"इष्टापूतं ही ते क्लीब कीर्तिश्च सकला हता।
विच्छिन्नं भोगमूलं ते किं निमित्तं हि जीवसि ॥"१८ जीवन का मूल्य तेजस्विता में है। वह जीवन अल्प है या दीर्घ है, इस अर्थ में नहीं। तेजस्वी प्रज्वलित दीप्तिमान जीवन अल्प भी महान् है। तेजो हीन निष्कर्म जीवन शतायु हआ तो भी क्या? विदुला इसी सन्दर्भ में कहती है-मूहर्त मात्र का तेजस्वी प्रज्वलित जीवन ही श्रेयस्कर है, न कि धूमायित अर्थात् अपकर्म का धुंआ छोड़ता हुआ दीर्घ जीवन ।
"मुहूर्त ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरम् ॥"१६
क्षत्रिय की जय और पराजय का बहत बड़ा विकल्प रहता है। उसका चिन्तन कर्महीन होकर अधिकतर जीतूंगा या हारूँगा, इसी विकल्प में उलझा रहता है । क्षत्रिय ही क्यों, आमतौर पर मनुष्य मात्र को कर्म-क्षेत्र में हानी और लाभ का ही विकल्प उसे साहस के साथ कुछ करने नहीं देता। इसलिए श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था-"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन् ।"
अपने पुत्र को उत्साहित करते हुए विदुला भी यही कहती है-बुद्धिमान पुरुष निर्धारित अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, इसकी चिन्ता नहीं करता है। वह अपनी शक्ति के अनुरूप प्राणपण से साध्य के हेतु निरन्तर चेष्टा करता है और अपने ही यिक्तगत लाभ के हेतु विकल्प - जाल में कभी भी नहीं उलझता है
महाभारत युग की दो वीर माताएं:
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