Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 141
________________ अपने को दुर्बल एवं हीन मानकर स्वयं ही अपनी अवहेलना न कर। अपने जीवन को अल्प साधनों के भरोसे ही न रख । अपने मन को कल्याणमय बना, अधिकाधिक शुभ संकल्पों से शक्तिशाली बना । अतः भय का परित्याग कर निर्भय हो जा "माऽऽत्मानभव मन्यस्व मैनमल्पेन बीभरः । मनः कृत्वा सुकल्याणं मा भैस्त्वं प्रतिसंहर ॥७॥" ओ कायर ! उठ, खड़ा हो, इस प्रकार शत्रु से पराजित हो कर, उद्योगहीन हो कर शय्या पर न पड़ा रह । इस तरह से तो तू अपने शत्रुओं को ही आनन्द दे रहा है। अपने वंश की मानप्रतिष्ठा को खो कर तू अपने प्रिय बन्धु जनों को शोकाकुल कर रहा है "उतिष्ठ हे का पुरुष ! मा शेष्वेवं पराजितः । ___ अमित्रान् नन्दयन् सर्वान् निर्मानो बन्धुणोकद ||८॥" __जैसे छोटी क्षुद्र नदी थोड़े जल से अनायास ही भर जाती है और चूहे की अंजलि थोड़े-से अन्न ही में भर जाती है, उसी प्रकार कायर को सन्तोष दिलाना बहुत सुगम है, वह अपनी दुर्बलता के फलस्वरूप अल्प लाभ से ही संतुष्ट हो जाता है। "सुपूरा वै कुनदिका सुपुरो मूषिकाजलिः । सुसंतोष: कापुरुषः स्वल्पकेनैव तुष्यति ॥६॥" विदुला माँ है, माँ को अपने पुत्र के जीवन की सबसे बड़ी चिन्ता रहती है। फिर भी देखिए, विदुला अपने महान् राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्रिय पुत्र के जीवन की भी कोई चिन्ता नहीं करती है। फलतः पुत्र के सुप्त साहस को जागृत एवं उद्दीप्त करती हई कितनी अधिक ओजपूर्ण भाषा में कह रही है तू अपने राष्ट्र के सर्प रूप भयंकर शत्रु के दाँतों को तोड़ता हुआ भले ही मृत्यु को प्राप्त हो जा। प्राणों के नष्ट होने की कितनी ही अधिक संभावना क्यों न हो, फिर भी राष्ट्र - रक्षा हेतु युद्ध में पराक्रम करना अत्यावश्यक है - "अप्यहेरारुजन् दंष्ट्रामाश्वेव निधनं व्रज । अपि वा संशयं प्राप्य जीवितेऽपि पराक्रमे ।।१०॥" १२८ चिन्तन के झरोखे से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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