Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 145
________________ शास्त्रों की मर्मज्ञ थी और महापुरुषों के वचनों से यथोचित लाभ उठाने वाली थी । माता कुन्ती भी विदुला से कम नहीं थी । दीर्घ जीर्ण-शीर्ण वृद्धावस्था में भी उसके वचन इतने तेजस्वी हैं, जो महाति - महान् कहे जाने वाले वीर पुरुषों में भी सहज सुलभ नहीं होते । वह वीरता की साक्षात् जीवन्त मूर्ति है । उसके हर वचन में प्राणवान शौर्य का निर्भर प्रवाहित है । अतः कुन्तीजी का साक्षी रूप में हम यहाँ एक वचन उद्धृत कर रहे हैं युधिष्ठिर ! तुम जिस कृपण बुद्धि के सहारे चल रहे हो, उसके लिए न तो तुम्हारे पिता पाण्डु ने, न मैंने और न तुम्हारे पितामह ने ही पहले कभी आशीर्वाद दिया था अर्थात् तुम्हारे में ऐसी दुर्बल बुद्धि की कामना किसी ने नहीं की थी - " न ह्य ेतामाशिषं पाण्डुनं चाऽहं न पितामहः । प्रयुक्तयन्तः पूर्वं ते यया चरसि मेधया ।।” १३१, २३ मैं तो तेरे लिए सदा आशीर्वाद रूप में यही मनाती रही हूँ कि तुझे यज्ञ अर्थात् जन सेवा, दान, तप, शौर्य, बुद्धि, संतान, महत्त्व, बल और ओज की प्राप्ति हो - १३२ · "यज्ञो दानं तपः शौर्य प्रज्ञा संतानमेव च । महात्म्य बलमोजश्च नित्यमाशसितं मया । " २४ आज राष्ट्र को इन्हीं वीर माताओं के चरित्र वाली उदात्त, उदार, साहसी, राष्ट्रभक्त माताओं की आवश्यकता है । ये ही वे माताएँ हैं, जो परिवार, समाज, राष्ट्र और धर्म की रक्षा करने वाली साक्षात् भगवती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only चिन्तन के झरोखे से : www.jainelibrary.org

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