Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 150
________________ लोक-हित एवं लोक-कल्याण का भी सर्वमंगल सम्बन्ध जुड़ा हुआ है | पूज्यपाद भदन्त भद्रबाहु स्वामी अपने सुप्रसिद्ध कल्पसूत्र में वर्णन करते हैं- "लोकान्तिक देव भगवान् से प्रव्रज्या अर्थात् दीक्षा ग्रहण करने के लिए देवलोक से आ कर प्रार्थना करते हैंभगवन् लोकनाथ ! सम्पूर्ण जगत के समस्त प्राणियों के हित, सुख, एवं निश्श्रेयस के लिए अब धर्म - तीर्थ का प्रवर्तन कीजिए 33 "भगवं लोगनाहा ! पवतेहि धम्मतित्थं परं । हियसुहं निस्सेयकरं सव्वलोए सव्वजीवाणं ||२१ उक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है, कि तीर्थंकरों की दीक्षा जहाँ एक ओर आत्म शुद्धि की साधना है, वहाँ दूसरी ओर लोक-हित की साधना भी है । यह उभयमुखी ज्योति का पथ है । इससे स्पष्ट ही समाज कल्याण का दिव्य स्वर अनुगूं जित है । कल्याणक को सादर नतशीष प्रणाम करता हूँ दीक्षित होनेवाले महानुभाव दीक्षा के उक्त हेतुओं प्रसंग कुछ ग्रहण कर सकेंगे ? । - - दीक्षा के अनन्तर कल्याणक आता है— केवलज्ञान कल्याणक । यही मूल हेतु एवं लक्ष्य है-जैन - आचार का, जैन - साधना का | इसीलिए सर्व प्रथम " नमो सिद्धाणं" से पूर्व "नमो अरहंताणं" पद ध्वनित होता है, नमस्कार महामंत्र में । प्रणिपात सूत्र नमोत्थूणं में भी सर्वप्रथम अरहन्त ही स्मरणीय है नमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं "1" " अन्यत्र अनेकानेक स्थलों में भी अर्हद्र महिमा का मुक्तकंठ से गुणगान किया है । एक प्रकार से समग्र जैन साहित्य अरहन्त महिमा से ही परिव्याप्त है । दशवैकालिक सूत्र के नवम् अध्ययन के चतुर्थ उद्दे शक में स्पष्ट ही कहा गया है— जैन न इस लोक के लिए है, न परलोक के लिए और न Jain Education International अतः मैं दीक्षा क्या आज के में से यथा · तीर्थंकरों के कल्याणक : एक समीक्षा : १. आचारांग द्वितीय श्रुतस्कंध के भावना अध्ययन की गाथा ६ में भगवान् के इसी सर्व जग हितकारी भावना का उल्लेख किया है— For Private & Personal Use Only आचार का हेतु यश-कीर्ति आदि "एए देवनिकाया भगवं बोहिति जिणवर वीरं । सव्वजगज्जीवहियं अरिह ! तिथ्थ पवन्ते हि ॥" १३७ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166