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में उनके द्वारा दीक्षित सात सौ केवल ज्ञानी महान् आत्माओं ने निर्वाण प्राप्त किया है। किन्तु, उनके निर्वाण को कल्याणक के रूप में क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? जैसे यह निर्वाण की घटना उनकी साधना के फलस्वरूप उनकी व्यक्तिगत घटना है, वैसे ही तीर्थंकरों को भी है । दोनों में क्या अन्तर है ? कुछ भी तो नहीं ।
मेरी समझ में नहीं आता, निर्वाण को महोत्सव का रूप क्यों दिया जाता है ? महोत्सव तो हर्ष, उल्लास और आनन्द का होता है। क्या हमें तीर्थंकरों के निर्वाण से कोई हर्ष है ? अब तो क्या, जब भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, तब हर्ष और आनन्द के स्थान पर, सर्वत्र दुःख, शोक और विषाद की काली छाया उपस्थित हो गई थी। जिसके फलस्वरूप सभी साधकों के अन्तर्मन अवसन्न हो गए थे । औरों की बात जाने दीजिए, चार ज्ञान चौदहपूर्व के धर्ता महान् गणधर गौतम भी विषाद से अस्पर्शित नहीं रहे। उनकी तेजस्वी एवं निर्द्वन्द्व आँखों से भी शोकाश्रुओं का निर्भर फूट पड़ा। जैसा कि हमारे कथाकार कहते हैं-वे भद्र बच्चों की तरह पितृ-वियोग में कुछ देर तक विलख - विलख कर रोते रहे।
यदि निर्वाण महोत्सव का रूप होता, तो उन्हें हर्ष मनाना चाहिए था कि अच्छा हुआ कि भगवान् देह - बन्धन से मुक्त हो गए और निर्वाण को प्राप्त हो गए। किन्तु, ऐसा नहीं हुआ। वे बार-बार यही कहते रहे-"हन्त, महाप्रकाश चला गया। अब इस अन्धकार में हमें कौन प्रकाश देगा ? कौन हमारे संशयों का उच्छेदन करेगा? कौन हमें शल्य-मुक्त करेगा ?" आप देख सकते हैं, यह प्रसन्नता का हर्ष नाद नहीं, अपितु विषाद् का हा-हाकार है।
गणधर गौतम वे ही हैं, जो उत्तराध्ययन सूत्र के उल्लेखानसार श्रावस्ती में श्री पार्श्वनाथ परम्परा के महान् आचार्य, किन्तु पार्श्वनाथ के निर्वाण से विषाद्ग्रस्त श्री केशीकुमार श्रमण को बड़े हर्ष से कहते हैं-"अन्धकार की अब कोई चिन्ता नहीं है। श्री जिन - रूप - भास्कर का उदय हो चुका है। वह भास्कर विश्व में अन्धकार ग्रस्त जिज्ञासु प्राणियों के लिए सम्यक् - ज्ञान का प्रकाश करेगा।" आप देख सकते हैं कि कितने अधिक सात्विक हर्ष का निर्भर बह रहा है गोतम की वाणी में। यह हर्ष श्रमण भगवान्
तीर्थकरों के कल्याणक । एक समीक्षा :
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