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अपने अन्तस्थ शत्रु काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि पर ईमानदारी के साथ विजय प्राप्त करना ही पर्युषण पर्व की आराधना है। अतः यह महाति-महान् अनुपमेय आध्यात्मिक विजय पर्व है। बाहर में मैत्री के नारे लगाने मात्र से कुछ नहीं होना है। और तो और, एक ही धर्म - परम्परा की विभिन्न धाराएँ पारस्परिक सामान्य मन - मुटावों को दूर करके एक - धारा के रूप में नहीं मिल पातीं। अतः हम देखते हैं कि आए दिन उपहासास्पद तुच्छ प्रश्नों पर भीषण संघर्ष होते हैं, दण्डा - दण्डी होती है, कभी-कभी शिरोरक्त बहते हैं और बड़ी-से-बड़ी अदालतों तक गुहार मचायी जाती है। यह कैसी मैत्री ? और, यह कैसी मैत्री के महापर्व पर्युषण की आराधना ?
सच्ची मैत्री तभी हो सकती है, जब हम अपने स्वार्थों, अहंकार, यश एवं पद - प्रतिष्ठा के प्रलोभनों को अपने पर हावी नहीं होने देंगे, प्रत्युत उन पर विजय प्राप्त करेंगे । जब तक विकारों से उत्पन्न होने वाले जीवन - द्वन्द्व समाप्त नहीं होंगे, तब तक न तो सही अर्थ में मैत्री होगी, न पर्युषण पर्व की अराधना होगी, न धर्म - विजय होगी और न आत्म - विजय ।
खेद है, इस महापर्व के पावन प्रसंग पर यह आत्म - विजय एवं मैत्री - भाव की निर्मल धारा हम न साधु - वर्ग में देख पा रहे हैं और न गृहस्थ - वर्ग में। यदि जीवन में मैत्री की धारा प्रवहमान होती, तो जिन - धर्म की गूज विश्व में सब ओर अनुगुंजित होती और जन - जन का मन अद्भुत स्वर्गीय आनन्द प्राप्त कर हर्षोल्लास का बन्धुत्व रूप जीवन बीताता। सही अर्थ में देखा जाए, तो मुक्ति भी यही है-"विकार मुक्ति किल मुक्तिरेव ।" ___मुक्ति कोई स्थान विशेष मात्र तो है नहीं । विकार - मुक्त आत्मा की शुद्ध - स्वरूप में स्थिति ही मुक्ति है। अतः महान् आचार्य पूज्यपाद ने ठीक ही कहा है--सिद्धि स्वात्मोपलब्धिः" "शुद्धविशुद्ध स्व-स्वरूप की समुपलब्धि ही यथार्थ सिद्धि है, वास्तविक मुक्ति है। अक्टूबर १९८८
विजय पर्व
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