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राजनीति की भी स्थापना की थी। परिवार, समाज एवं राजनीति की स्थापना में अपने जीवन का अधिकांश भाग प्रयुक्त करने के अनन्तर ही धर्मनीति की स्थापना की है। स्पष्ट है-विशुद्ध राजनीति की स्थति के अभाव में धर्म - साधना भी पंगु हो जाती है। इसीलिए स्थानांग सूत्र में राजा को भी धर्म - साधना की सुरक्षा के रूप में एक अंग बताया गया है। इसी प्रसंग में नीति-शास्त्र के महान् उद्गाता जैनाचार्य सोमदेव सूरि ने अपने सूविख्यात ग्रंथ "नीति-वाक्यामृत १७, ४, ५" में कहा है-'प्रजा एक वृक्ष है, शास्ता राजा उसका मूल है। मूल रहित वृक्ष को सिंचन एवं पोषण करने का क्या अर्थ है ? आगे चलकर आचार्य ने प्रशासन की दण्डनीति का बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है । वे कहते हैं, कि विवेकशील शासक का अनुशासनात्मक दण्ड प्रजा के जीवन को विकारमुक्त स्वस्थ बनाने के लिए है, जैसे कि वैद्य चिकित्सा के द्वारा रोगी को स्वस्थ करता है। शासन प्रजा के पालन के लिए होता है, वैयक्तिक धन - संग्रह के लिए नहीं । देखिए उक्तभाव को उन्हीं के शब्दों में
"चिकित्सागम इव दोषविशुद्धि हेतुर्दण्डम् ।-६, १. "प्रजापालनाय राज्ञा दण्ड - प्रणीयते न धनार्थम्" 18, ३.
आचार्य सोमदेव सूरि का राजधर्म का वर्णन महत्त्वपूर्ण है। उसके लिए एक अलग से निबन्ध की अपेक्षा है। स्वास्थ्य साथ दे सका और अवकाश मिला, तो हम फिर इसकी चर्चा करेंगे। प्रस्तुत में हम भारतीय - संस्कृत - वाङमय के महान् ग्रन्थ वाल्मीकीय रामायाण के आयोध्या काण्ड १०० वें सर्ग में से राजनीति का कुछ अंश उद्धृत कर रहे हैं । यह महत्त्वपूर्ण अंश मर्यादा पुरुषोतम राम के द्वारा वनवास में राजकुमार भरत से पूछे गए एतत्सम्बन्धी प्रश्नों में से उद्भासित होता है ।
श्रीराम को वनवास हो गया है। वे चित्रकूट में विश्राम ले रहे हैं। भरत उन्हें वापिस बुलाने के लिए श्री-चरणों में पहुँचता है। इस समय श्रीराम भरत से कुछ प्रश्न करते हैं, जो योग्य शासक के कर्तव्य-कर्म को स्पष्टतः प्रतिध्वनित करते हैं
भारतीय-संस्कृति में प्रशास्ता की । कर्तव्य भूमिका ।
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