________________
कच्चिन्नु सुकृतान्येव, कृतरूपाणि वा पुनः ।
विदुस्ते सर्वकार्याणि, न कर्तव्यानि पार्थिवाः ॥२०॥ -तुम्हारे सब कार्य पूर्ण हो जाने पर अथवा पूरे होने के समीप पहुँचने पर ही दूसरे प्रतिस्पर्धी राजाओं को ज्ञात होते हैं न ? कहीं ऐसा तो नहीं होता, कि तुम्हारे भावी कार्यक्रमों को वे पहले से ही जान लेते हों ?
कच्चित् सहस्रमूखाणामेकमिच्छसि पण्डितम् ।
पण्डितो ह्यर्थकृच्छषु कुर्यान्निः श्रेयसं महत् ॥२२॥ -क्या तुम सहस्रों मुखों के बदले एक पण्डित को ही पास रखने की इच्छा रखते हो? क्योंकि विद्वान् पुरुष ही अर्थ संकट के समय महान् कल्याण कर सकते हैं ।
कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव, मध्यमेषु च मध्यमा।
जघन्याश्च जघन्येषु, भृत्यास्ते तात योजितः ॥२५॥ -तात ! तुमने प्रधान व्यक्तियों को प्रधान, मध्यम श्रेणी के मनुष्यों को मध्यम, और छोटी श्रेणी के लोगों को छोटे ही कामों में नियुक्त किया है न ?
कच्चिन्नोग्रण दण्डेन, भृशमुवे जिता: प्रजा।
राष्ट्र तवावजानन्ति, मन्त्रिण: कैकयीसुत ॥२७॥ -कैकयी कुमार ! तुम्हारे राज्य की प्रजा कठोर दण्ड से उद्विग्न होकर तुम्हारे मन्त्रियों का तिरस्कार तो नहीं करती ?
कच्चिन्न लोकायतिकान, ब्राह्मणांस्तात सेवसे ।
अनर्थकुशला ह्यते बाला, पण्डितमानिनः ॥३८॥ -तात ! तुम कभी नास्तिक विद्वानों का संग तो नहीं करते हो? क्योंकि वे बुद्धि को परमार्थ की ओर से विचलित करने में कुशल होते हैं तथा वास्तव में अज्ञानी होते हुए भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानते हैं।
प्रासादविविधाकारर्वृत्तां, वैद्यजनाकुलाम् । कच्चित् ममुदितां, स्फीतामयोध्यां परिरक्षसे ॥४२॥
भारतीय-संस्कृति में प्रशास्ता की : कर्तव्य भूमिका :
१०७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org