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विजय पर्व
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मानव जीवन के लक्ष्य, यों तो भारतीय - वाङ् मय में अनेक रूपों में अभिर्वाणित हैं । कहीं पर देह का सुन्दर रूप है, तो कहीं पर शत्रुओं को पराजित करने वाला सशक्त देह का विक्रम - बल । कहीं पर धन-संपत्ति एवं ऐश्वर्य के अम्बार हैं, तो कहीं पर उच्च पद - प्रतिष्ठा के उच्चतम सिंहासन हैं । कहीं पर पुत्र पौत्रादि विशाल परिवार है, तो कहीं पर मित्र वर्ग है । कहीं पर यशकीर्ति है, जय जयकार है, तो कहीं पर चतुरता, बुद्धि और कुछन-कुछ नवीन रचना करने की कला - कौशल का विकल्प है । कोई सीमा है - इन बाह्य कार्य - कलापों को, वर्णनों की ? अतः गणना का क्रम ही व्यर्थ है ।
आज सबसे महान् प्रश्न है, मानव के वास्तविक यथार्थ लक्ष्य का ? वह लक्ष्य क्या है ? यों तो विजय के भी बाहर में अनेक रूप हैं ? किन्तु, वे सब तुच्छ हैं, क्षुद्र हैं, जन-मंगल की दिशा में उनका कौड़ीभर का भी मूल्य नहीं है । अतः यथार्थ विजय है - "आत्मविजय ।" आत्म विजय अर्थात् अन्दर के विकारों पर विजय । काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकार दो-चार नहीं, असंख्य हैं. अनन्त हैं । और वे विकार कोई आज के नहीं हैं। क्या आप जानते हैं, ये हैं कौन ? ये हैं, आपके मानव जाति के, कुछ आगे बढ़ कर कहूं तो प्राणिमात्र के शत्रु । ये वे छली शत्रु हैं, जो मित्र बन कर घर के अन्दर ही विराजमान हैं और खूब जी भर कर मानप्रतिष्ठा पा रहे हैं । इससे बढ़ कर दूसरी और कौन-सी अनर्थकारी मूढ़ता होगी । शत्रु को शत्रु समझ लेना भी सही समझ है, बुद्धिमत्ता है | यह समझ कभी-न-कभी अन्दर के शत्रुओं को पराजित करने में सफल होगी ही ।
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चिन्तन के झरोखे से :
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