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भारतीय संस्कृति का दर्शन कर्म का दर्शन है, श्रम का दर्शन है। श्रम के द्वारा ही 'श्री' की उपासना की वह सूचना देता है। कुछ भी प्राप्त करो, किन्तु उस प्राप्ति के मूल में श्रम है, उसे एक क्षण भी न भूलो। तुम्हें जो कुछ भी मिलेगा, तुम्हारे अपने श्रम से मिलेगा। और, जो श्रम से मिलेगा, वह अमृत होगा । श्रमहीन व्यक्ति को आलस्य से परिलिप्त जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह विष है, जीवन-घातक है।
आजकल राष्ट्र की स्थिति को देखता हूँ, तो सहसा हतप्रभ हो जाता है। भारतीय-संस्कृति, धर्म और दर्शन की उदात्त विचारधाराओं के उत्तराधिकारी भारत के लोगों को हो क्या गया है ? आज इच्छाएँ तो लंका के रावणों को तरह बेलगाम हो रही हैं। बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं, जो वर्षाकालीन तूफानी नदियों की तरह दिशाहीन बह रही हैं और हा - हा कार मचा रही हैं। कितनी विचित्र मनःस्थिति है कि लोग अभीष्ट 'श्री' प्राप्त करना चाहते हैं, किन्तु श्रम से जी चुराते हैं । आए दिन जरा - जरा-सी बातों पर हड़तालें होती हैं । कल - कारखाने और बाजार बलात् बन्द करा दिए जाते हैं। और इसी बीच उन उत्तेजित हुए अथवा उत्तेजित किए गए लोगों द्वारा सरकारी एवं जनता की संपत्ति की तोड़-फोड़ होने लगती है और यहाँ तक की आगजनी की दुर्घटनाएँ भी होती हैं और चुनाव के चक्र में "चक्र भ्रमति मस्तके" कथा वाले अनेक दल उक्त अर्थहीन हड़तालों को बढ़ावा देनेवाले नेताओं को पता नहीं कि उक्त हड़तालों से राष्ट्र की सम्पत्ति बढ़ती है या क्षीण होती है ? एक दिन के हड़ताल में देश की श्री वृद्धि में से अरबोंखरबों तक की सम्पत्ति रूप श्री काल के गाल में में स्वाह हो जाती है और देश श्री - सम्पन्न होने की जगह श्री-हीन हो जाता है। समृद्धि सम्पन्न होने की अपेक्षा और अधिक दीन - हीन हो जाता है। जितनी अधिक सम्पत्ति का क्षय होगा, उतनी ही महँगाई बढ़ेगी। परंतु, देश की अज्ञानता ने एक ही मंत्र सीख लिया है कि महंगाई कम करने के लिए हड़ताल करो, काम न करो और निठल्ले बैठ कर ही खाओ-पीओ, मौज उड़ाओ। यह कैसा विचित्र चिन्तन है। प्यास लगी है, नये सिरे से श्रम करके दूर से पानी को क्या लाना है, पास में रखे हुए शीतल जल से भरे हुए घट को ही
चिन्तन के झरोखे सेः
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