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अच्छा हो, श्रेयस्कर हो, मंगलमय हो, यदि कुछ खाया-पिया जाता है, तो वह साधारण - से - साधारण मानव के अन्तर में देवत्व की ज्योति जगाता है। मनुष्य के गिरते • पड़ते, सड़ते, गलते अन्तर्मन को जीवन देने वाला, उसे ऊँचाइयों पर पहुँचाने वाला, एक मात्र निष्ठा के साथ किया जाने वाला उसका श्रम ही है। श्रम में से ही गुप्त सोने के खजाने बाहर में प्रकट होते हैं।
___ गुजरात के महान सम्राट श्री कुमारपाल राजा होने से पूर्व एक दिन दीन-हीन स्थिति में से ही गुजर रहे थे। विरोधी भयंकर शत्रु मृत्यु की तरह उसके पीछे लगे हुए थे । और वह कुमारपाल अपने प्राण बचाते हुए जंगलों में मारा-मारा फिर रहा था।
एक दिन बहुत भूख लगी हुई थी। सुबह से खाने को एक दाना भी नहीं मिला था। चलते हुए एक खेत के पास से गुजर रहे थे। किसान अपने खेत में हल जोत रहा था। विश्राम के हेतु उसी खेत में एक वृक्ष के नीचे कुमारपाल भी बैठ गया। इतने में किसान की पत्नी भोजन लेकर आई । भारतीय - संस्कृति की प्राणवत्ता से सुप्राणित दरिद्र किसान भी भला अपने खेत पर आए हुए अतिथि को भोजन दिए बिना अकेले कैसे खा सकता था ?
किसान कुमारपाल के पास जाता है और भोजन के लिए निमन्त्रण देता है। किन्तु, कुमारपाल इनकार करता है। किसान के अत्यन्त आग्रह पर कुमारपाल भोजन नहीं लेने का स्पष्टीकरण करता है, कि मैंने तुम्हारे लिए कोई भी काम नहीं किया है। ऐसी स्थिति में मैं कुछ भी मूल्य दिए बिना यूही निठल्लेपन से तुम्हारा भोजन कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ?
लम्बी बात न करु, अन्त में फैसला हुआ, खेत में हल जोतने का । भयंकर भूख लगी हुई थी। रोटी का एक टुकड़ा भी उस समय उसके लिए अमृत के समान था, जीवन रक्षक था। फिर भी युवक कुमारपाल कुछ देर तक किसान के खेत में हल जोतता रहा।
और इतिहासकार कहता है, कि हल जोतते हुए खेत में से स्वर्णमुद्राओं से भरा हुआ एक ताम्र - कलश निकला और वह किसान को अर्पण कर दिया। यह है, श्रम में से स्वर्ण-निधि के उद्भत होने की अनेक कथाओं में से एक कथा।
सशक्त श्रम में ही श्री का निवास है।
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