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सम्यकत्व कहाँ है, कहाँ नहीं ?
मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि 'मैं' हूँ इसको खोजने का सम्यक् - पुरुषार्थ ही 'सम्यकत्व' है, सच्चे माने में। हमारे यहाँ सम्यक्त्व पाने वाले के लिए बहुत-से बाहर के विकल्प खड़े किए जाते हैं कि अमुक प्रकार का वेश हो, अमुक प्रकार की क्रियाएँ हों, अमुक गुरु से गुरुधारणा करे, अमुक - अमुक मान्यताओं पर विश्वास करे, वहीं सम्यक्त्व है, और जो इस प्रकार के नहीं हैं या जो इस प्रकार से विश्वास नहीं करते, वहाँ सम्यक्त्व नहीं है। बड़ा गड़बड़-झाला है। कहा जाता है-इस गुरु को मानो और इसको न मानो, तभी सम्यक्त्व है। इस गुरु में यह दोष है, उसमें अमुक दोष है । यह गुरु नहीं है, वह गुरु है। इस प्रकार गुरुओं पर अपनी मान्यता के अनुसार लेबल लगाया जाता है। शिष्यों पर भी इसी तरह लेबल लगाते हैं कि यह फलां गुरु का शिष्य है, तो सच्चा सम्यक्त्वी है। बड़ी विचित्र उलझन में डाल रखा है, सम्यक्त्व को। अमुक साधुओं को मानिये तो सम्यक्त्व है, अमुक को मानेंगे तो सम्यक्त्व नहीं है। खेद है, सम्यक्त्व को तौलने के बाट और नापने के गज हर व्यक्ति के अपने-अपने हैं। .
एक साधक का प्रश्न मेरे सामने आया। उसका कई पृष्ठों में लम्बा-चौड़ा एक पत्र आया। उसमें गुण-दोषों-दोनों का वर्णन करने के वजाय, केवल दोषों-ही-दोषों के बयान से पृष्ठ भरे थे। अन्त में लिखा था-"ऐसी स्थिति में क्या समझा जाए ? क्या किया जाए ?" मैंने चन्द पंक्तियों में उस पत्र का उत्तर लिखाया"भाई ! वास्तव में आप साधक हैं । सच्ची साधना के कारण आपकी आत्सा में जागति आ गई है, तो मेरा नम्र सुझाव है कि साधक को बाहर की तरफ देखने की अपेक्षा अपने अन्तरंग में ही देखना चाहिए। बाहर में जो तलाश कर रहे हैं, वे पर-दोष ही देखते हैं। दुर्भाग्य से इतने पृष्ठों में आप किसी का कोई गुण बयान नहीं कर सके, केवल दोष-ही-दोष आप देखते रहे । परदोषदर्शन की दृष्टि कभी गुण-दर्शन कर ही नहीं सकती। इसलिए कभी दोष ही देखना हो तो अपने अन्दर देखो। जो साधक अपने अन्दर में दोषों को देखता है, वही उनका निराकरण कर सकता
सम्यक्त्व का यथार्थ दर्शन :
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