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कहते हैं । सिर्फ जैन ही नहीं. भारत की प्रायः सभी आस्तिक परंप राओं में इसकी चर्चा है । उसके रूप कुछ भिन्न- भिन्न हैं, लेकिन हैं अवश्य ।
जीवन एक यात्रा है । इस यात्रा में साधक जब यात्रा के अन्तिम क्षणों में पहुँच जाता है, तो उसके मन में एक प्रश्न उठता है कि इस जीवन -याता से अन्तिम विदाई लू, तो कैसे लूँ ? जैसे अन्य प्राणी जन्मते और मरते रहते हैं, उसी प्रवाह में बहता रहूं, या उससे भिन्न मार्ग स्वीकार करूँ ? और वह चिन्तन - पूर्वक संथारे की ओर अग्रसर होता है । वैसे संथारे का अर्थ कुछ और है, परन्तु वह अनशन के लिए रूढ़ हो गया है। प्राचीन युग में कुशा घास बिछा देते थे, उसे संस्तरण अर्थात् संस्तार बिछौना कहते थे । साधक उस संस्तरण पर बैठ कर अपनी शक्ति को तौल लेता था, समय (काल) को जान लेता था । उसके पश्चात् वह अनशन स्वीकार करता था । अतः साधक के लिए समयज्ञ कालज्ञ होना जरूरी है ।
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साधक को स्वयं यह ज्ञान हो जाए या किसी विशिष्ट ज्ञानी से यह ज्ञात हो जाए कि मेरा अन्तिम समय निकट आ गया है, जीवन-धारा के क्षण थोड़े से शेष रह गए हैं । अतः मुझे अपने आपको संसार के द्वन्द्वों से अलग कर लेना है । वह मृत्यु के क्षणों से भयभीत होकर रोता-बिलखता नहीं जाता, प्रत्युत निर्भय और निर्द्वन्द्व भाव से आत्मा - साधना में तल्लीन होकर प्रसन्न चित्त से मृत्यु का स्वागत करता है ।
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संथारे में मुख्य बात अनशन की नहीं, जीवन के परिमार्जन की है । प्रभु स्मरण के साथ वह अपने जीवन का निरीक्षण करता है और जीवन यात्रा में कहीं कोई गलती हो गई है, किसी के साथ वैर - विरोध हो गया है, तो उसके लिए वह क्षमा चाहता है, सबके साथ मैत्री भाव सम्पादित करता है । इसका अर्थ है - साधक के लिए सब अपने मित्र हैं, बन्धु हैं । उसके मन में अपने और पराए का कोई विभेद नहीं है ।
साधक, चाहे साधु हो या श्रावक हो । परिवार में, समाज में, संघ में, राष्ट्र में रहता है । अतः परिवार, समाज, संघ एवं
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चिन्तन के झरोखे से
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