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मुक्ति एवं देव-गति दोनों की हेतुता के रूप में उपस्थित करते हैं, वे भ्रम में हैं । एक ही कारण से बन्ध और मोक्ष रूप- दो विपरीत कार्य कदापि संभव नहीं हो सकते । अतः बन्ध हेतुता संयम में नहीं, अपितु संयम के साथ रहे हुए राग भाव में है । उक्त सिद्धान्त को पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द ने काफी स्पष्टता के साथ उपस्थित किया है
"येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन हि रागस् तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।। "
- साधक की साधना के जिस अंश में चारित्र है, उस अंश में बन्धन नहीं है । किन्तु, जिस अंश में राग है, मात्र उस अंश में ही बन्धन है ।
३. संयमासंयम : संयमासंयम एक मिश्रित शब्द है, जो मिश्रित अर्थ को अभिव्यक्त करता है । गृहस्थ साधक के जीवन में अमुक अंश में संयम है और अमुक अंश में असंयम । अतः संयमासंयम में राग का अस्तित्व तो स्वतः स्पष्ट है ।
३. बाल तप कर्म : बाल शब्द यहाँ अज्ञान स्थिति का वाचक है । किसी प्रकार का सदसद् विवेक प्राप्त किए बिना, जो यों ही परम्परागत तथा मूढ़तावश शुभ - भावात्मक स्थिति में काय - क्लेश रूप तप करता है, वह भी निम्न स्तर की देवगति को प्राप्त कर लेता है ।
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४. अकाम निर्जरा : बिना भावना के कर्मों की निर्जरा होना, यह मूलार्थ है उक्त पद का । काम शब्द यहाँ भावनावाची है । अतः जो व्यक्ति किसी विशेष परतन्त्रता के कारण किसी के हठात किए गए अवरोध से अकुशुल-कर्म की निवृत्ति करता है, साथ ही आहार आदि का त्याग करता है एवं अन्य कष्ट भी सहन करता है । किन्तु, बीच में यदा कदा जो शुभ भाव आ जाते हैं, तो उससे भी देवगति की उपलब्धि हो सकती है ।
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उपर्युक्त हेतु में निर्जरा शब्द प्रयुक्त हुआ है । निर्जरा बन्ध का हेतु नहीं होती, अपितु अमुक अंश में बन्ध-मुक्ति का हेतु होती है | अतः यहाँ निर्जरा शब्द सविपाक निर्जरा के रूप में है । फिर
स्वर्ग लोक के ये यात्री 1
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