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स्वर्ग- लोक के ये यात्री
भू-मण्डल पर विश्व-साहित्य में नरक और स्वर्ग का विभिन्न रूपों में वर्णन उपलब्ध होता है । उक्त वर्णन को धार्मिक - परम्पराओं एवं सम्प्रदायों में मुख्यता है ही, प्रत्युत लोक - जीवन की किंवदन्तियों एवं लोक-कथाओं में भी कम चर्चा नहीं है। भारतीय साहित्य में तो इतना अधिक वर्णन है, कि जिसे अमुक सीमाओं में आबद्ध करना कठिन ही नहीं, कठिनतर है।
हम अपने पहले एक लेख में नरक-जीवन के कष्टों और उन कष्टों के हेतुओं का अमुक अंश में दिग्दर्शन करा चुके हैं। प्रस्तुत में स्वर्ग का वर्णन लेखनार्थ अभीष्ट है।
प्राचीन जैन-आगम एवं आगमोतर - साहित्य तथा वैदिकधर्म की विभिन्न परम्पराओं के साहित्य में देवों का काफी रोचक वर्णन है।
देवों की विभिन्न जातियाँ हैं। वे जातियाँ, कहाँ किस स्थिति में रहती हैं ? उनके शरीर का प्रमाण क्या है ? आयु आदि किस की कितनी है ? इत्यादि विषयों का वर्णन काल - प्रवाह में काफी विस्तार ले चुका है।
देवताओं के सुखों का वर्णन तो रोचकता की दृष्टि से काफी विचित्र है। देव, गर्भ से नहीं, पुष्प - शय्या में से जन्म लेते हैं । जन्म लेते ही अन्तर्मुहूर्त जैसे स्वल्प - काल में नव - युवा बन जाते हैं और यह युवा - अवस्था मृत्यु पर्यन्त ज्यों - की - त्यों बनी रहती है। उन्हें कभी बुढ़ापा आता ही नहीं। अतः उन्हें निर्जर एवं त्रिदस आदि नामों से अभिहित किया है। वे इच्छानुसार नाना रूप धारण कर सकते हैं । दृश्य से अदृश्य हो सकते हैं।
देवियों की आयु की अपेक्षा देवों की आयु दीर्घ-दीर्घतर होती है । अतः एक देव अपने जीवन-काल में कितनी देवियों का प्रयोग स्वर्ग-लोक के ये यात्री।
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