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संथारा विशुद्ध अध्यात्म साधना है
आजकल कुछ समाचार पत्रों में यह प्रश्न विशेष रूप से उठाया जा रहा है, क्या जैन - परंपरा का संथारा आत्म हत्या नहीं है ? व्यक्तिगत रूप से भी दर्शनार्थ समागत भाई-बहन एवं कुछ विचारक पत्रों के माध्यम से भी यदा - कदा उक्त प्रश्न को उठाते रहते हैं। दिल्ली से दर्शनार्थ आए हुए जिज्ञासु श्री केवलकृष्ण के मन में भी यह जानने-समझने की जिज्ञासा है-"आत्म-हत्या और संथारे में क्या अन्तर है ?"
प्रश्न विचारणीय है, अतः उत्तर भी तदनुरूप ही तर्क - संगत अपेक्षित है। हम केवल अन्ध-श्रद्धा एवं रूढ़-परम्परा के नाम पर यों ही अंधेरे के प्रवाह में न बहते चले जाएँ। श्रमण भगवान् महावीर का निरन्तर यह दिव्य-घोष रहा है-जो भी क्रिया हो, ज्ञान पूर्वक हो, चिन्तन, प्रज्ञा एवं विवेक के आलोक में हो
"पढमं नाणं, तओ दया ।" --दशवकालिक क्रिया के पूर्व सम्बोधि होनी ही चाहिए। यह परिज्ञान क्रिया करने के पहले कर लेना चाहिए, कि इसे किस परिस्थिति में करना चाहिए, और इसका अन्ततः क्या परिणाम आएगा ? मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वरूप है, मेरे में अभीष्ट कार्य करने की शक्ति, क्षमता और सामर्थ्य कितना है ? और, मैं इसे विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाने पर भी ठीक तरह कितना निभा सकता हूँ ? साधक इस पर वार-वार चिन्तन करें
__"कश्चाऽहं, का च मे शक्ति, इति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः" संथारा क्या है :
संथारा, जिसे समाधि-मरण, अन्तिम संखलेना भी कहते हैं । वैदिक - परम्परा में इसे आमरण अनशन एवं प्रायोपवेशन भी
संथारा विशुद्ध अध्यात्म साधना है ।
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