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राज - मार्तण्ड आदि उनकी अनेक विद्वता पूर्ण रचनाएं विद्वत् जगत् में मान्य हैं।
अपनी सुप्रसिद्ध रचना सरस्वती कण्ठाभरणम् में श्री भोजदेव ने पुत्र - वधू की सवारी के रूप में नर - वाहन स्वरूप डोली का उल्लेख किया है-'बेवाहिऊण बहुआ सासुरअं दोलिआइ णिज्जन्ती।"
हमारे कुछ महानुभाव डोली को नर-वाहन मान भी लेते हैं, किन्तु वे उसे अपवाद का रूप दे कर यत्र-तत्र मुक्त रूप से उपयोग भी करते हैं । अपवाद से हमें इन्कार नहीं है, किन्तु पृष्टव्य है कि यह महनीय मुनियों द्वारा डोली का प्रयोग जो किया जा रहा है, क्या वह अपवाद नौका आदि द्वारा नदी - संतरण आदि के समान आगमोक्त है अर्थात् आगमों में इसका उल्लेख है ? यदि हैं, तो किस आगम में, कहाँ है ? बात - बात पर आगम की दुहाई देने वाले कुछ समाधान रखते हैं इसका ?
यदि परिस्थिति विशेष से प्रयोग किया जा रहा है, तो वह वर्षानुवर्ष ग्रामानुग्राम ठाठ - बाट के साथ खुल्ला प्रयोग करते हुए विचरण करना, किस दृष्टि से अपवाद क्षेत्र में आता है ? अपवाद परिस्थिति विशेष से जो होता है, वह क्षेत्र एवं समय-बद्ध होता है, दीर्घकाल तक ग्रामानुग्राम विचरण के लिए मुक्त प्रयोग करने के रूप में नहीं।
क्या यह पाद - विहार है ? यदि यह पाद - विहार है, तो फिर आपके उस शास्त्रीय पाद - विहार का अन्य रूप क्या है ? डोली के प्रयोग को पाद-विहार कहना स्पष्टतः द्वितीय, तृतीय एवं पञ्चम महाव्रत का भंग है।
परिस्थिति विशेष की आड में अपने शरीर संरक्षण का उद्घोष किया जाता है। क्या अपवाद का प्रयोग प्रतिक्षण मरण. धर्मा क्षुद्र मृतपिण्ड रूप देह तक ही सीमित है ? धर्म एवं धर्म-संघ के संरक्षण एवं प्रचारार्थ वह कुछ भी अर्थ नहीं रखता? यह कैसी बात, कि अपनी सुविधा को तो अपवाद का रूप दे कर अपने को चतर्थ काल के मूनिवर की गणना में सम्मिलित कर लेते हैं, और जब कोई अन्य मुनिवर धर्म के प्रचारार्थ किसी विशेष अपवाद का प्रयोग करता है, तो धर्मनाश की दुहाई दी जाती है ?
डोली यदि सवारी नहीं है : तो फिर क्या है वह ?!
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