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मुझे किसी की निन्दा के रूप में कुछ कहना नहीं है। फिर भी यह कहना चाहूँगा कि पांचवें सवार धर्म-दुन्दुभि बजाते हैं कि मुनिराज अपने वरीष्ठ मुनिवरों की डोली को भक्ति प्रेरित हो कर स्वयं उठाते हैं । अतः यह निर्दोष है, वाहन नहीं है। यदि भक्ति की ही बात है, तो रिक्शा, कार आदि वाहन भी भक्ति प्रेरित हो कर यदि कोई मुनि स्वयं ड्राइवर के रूप में गाड़ी चलाता है, तो क्या वह अपवाद मुनि के लिए निषिद्ध नहीं रहता है, अपितु वह धर्म बन जाता है ? सवारी की कोटि में से मुक्त हो जाता है ?
___ स्पष्ट है, व्यर्थ के शब्द - जाल से किसी भी समस्या का हल नहीं होता है। हृदय की पूरी इमानदारी के साथ सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करना ही धर्म है। जो बात मैं करूं, वह तो ठीक है, और वही बात यदि दूसरा कोई करता है, तो ठीक नहीं हैयह द्वत मूलक शब्द - जालों की भ्रान्ति का युग अब नहीं रहा । जनता की आँखें खुल चुकी हैं। जो सत्य के पक्षधर निर्भीक हैं, वे तो जो कार्य करते हैं, वे स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष में करते हैं। उनके पास छिपाने जैसे कोई बात नहीं है। छिपाना स्वयं में मायाचार है। किन्तु, युगानुरूप जो परिवर्तन सत्य के पक्षधर निर्भय-भाव से कर रहे हैं, उन्हीं में से कुछ परिवर्तन अन्य महानुभावों द्वारा भी किए जा रहे हैं । किन्तु, वे कर रहे हैं छिपकर, लोक - दृष्टि बचाकर । ताकि-"रिन्द-के-रिन्द रहें, हाथ से जन्नत भी न जाए।"
अन्दर में सुविधा का भोग भी होता रहे और बाहर में उग्राचार की पताका भी फहराती रहे। परन्तु, ध्यान में रहे वही कार्य अन्दर में पर्दे की ओट में कौन क्या, कैसे कर रहा है-यह चिन्तनशील लोग सब - कुछ जान गए हैं और जान भी रहे हैं। साम्प्रदायिकता के मिथ्या अहंकार की रक्षा के लिए वे बाहर में कुछ भी न बोले सकें, यह दूसरी बात है। परन्तु, सत्य एक है। उसके लिए अन्दर और बाहर, खुल कर या छिप कर, कोई दो रूप नहीं होते।
मैं और मेरे कुछ साथी, और कुछ नहीं चाहते, हम सबको एकमात्र यही अभीष्ट है, जो सत्य है और जो शिथिलाचार की दष्टि से नहीं, अपितु युगानुरूप परिवर्तन की दृष्टि से किया जा रहा है, उसे छिपाने के चक्कर में न पड़ें। सत्य का शंख ध्वनि के
चिन्तन के झरोखे से :
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