________________
राष्ट्र में किसी भो व्यक्ति के साथ कभी कुछ मैत्री - विहीन जैसी
बात हो गई हो, तो वह उससे बिना किसी भेद-भाव के निरपेक्ष भाव से क्षमा याचना कर ले | इसके लिए क्षमापना सूत्र में एक पाठ है - मैं सब जीवों को क्षमा देता हूँ और जगत् के सभी प्राणी मुझे क्षमा प्रदान करें । जगत् के सभी जीवों के साथ मेरा मैत्रीभाव है, सभी प्राणी मेरे बन्धु हैं, किसी के साथ वैर-भाव नहीं है"खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे ।
मज्झं न केणइ || "
-
मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं वैसे तो प्रतिदिन प्रतिक्रमण के समय यह पाठ बोला जाता है, परन्तु जीवन के अन्तिम समय में विदा होने के पूर्व अन्तर्हृदय से सब जीवों से मैत्री भाव रख कर विदा होना साधक के लिए आवश्यक है | साथ ही विगत जीवन में हुए अन्य दोषों का भी परिमार्जन कर लेना आवश्यक है । इससे पवित्र वातावरण बनता है । मन शुद्ध विशुद्ध होता है । मन के मैल को, कालुष्य को धो कर पावन - पवित्र बनाना, जीवन को परिमार्जित करके विशुद्ध बनाना, संथारे का मुख्य उद्देश्य है । अतः साधक को प्रबुद्ध चेतना से द्रष्टा बन कर देखना यह है कि भावना की विशुद्ध-धारा, चिन्तन की उज्ज्वल-धारा सतत प्रवहमान रहे, टूटने न पाए ।
Jain Education International
-
।
संथारे में आहार त्याग रूप अनशन करना मुख्य नहीं, गौण है । क्योंकि आहार का छोड़ना साधक की स्व- शक्ति पर निर्भर करता है । इसलिए श्रमण भगवान् महावीर का स्पष्ट उद्घोष हैसुख पूर्वक, समाधि एवं शान्ति के साथ जितने समय तक निराहार रह सको रहो, जितनी बाह्य तप साधना कर सकते हो करो । यदि आत्म-चिन्तन में, आत्म- शान्ति में बाधा उपस्थित होती हो, तो पारणा कर लेना ही उचित है । साधक के लिए भले ही वह साधु हो या गृहस्थ, भोजन करना पाप नहीं है । भोजन करते हुए भी साधक पुण्य का उपार्जन कर सकता है और निर्जरा अर्थात् धर्मं भी कर सकता है । भोजन तो महान् तपस्वी, ऋषि-मुनि, प्रबुद्धसाधक एवं अरहन्त वीतराग भी करते हैं। भोजन तो सिर्फ शरीर की आवश्यकता की पूर्ति के लिए है । साधक को इतना अवश्य ध्यान रखना है, कि प्राप्त भोजन मनोज्ञ - मन के अनुकूल हो या मन के प्रतिकूल - अमनोज्ञ हो अर्थात् गोचरी में सरस पदार्थ मिले संथारा विशुद्ध अध्यात्म साधना है :
६१
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org