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पिण्ड अर्थात् शरीर से घिरे हुए हैं, कुछ इन्द्रियाँ हैं, उनसे धिरे हुए हैं, कुछ मन के विकल्प हैं, जिनसे हम घिरे हए हैं। हम जब अंतरंग में घुसने का प्रयत्न करते हैं, तो इन भौतिक उपकरणों के कारण हमारी आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है। हम वहीं रुक जाते हैं। सबसे पहली कुंठा शरीर की है । ज्यों - ज्यों हम अन्दर प्रवेश करने लगते हैं, त्यों-त्यों शरीर, मन और इन्द्रियों के मोहक तत्त्व अर्थात् विषय हमें वहीं रोक लेते हैं। शरीर कहता है-'मैं ही हैं.' मन कहता है-'मेरे सिवा और कौन है ? मेरे आगे कुछ नहीं है।' इस प्रकार बहुत-सी आत्माएँ शरीर तक अटक कर रह गई। उसी को ही सर्वस्व मान लिया। कुछ इससे आगे बढ़े। उन्होंने सोचा कि शरीर में कुछ नहीं मालूम पड़ता। ये इन्द्रियाँ ज्ञान कर लेती हैं, आँखं कुछ देख लेती हैं, कान कुछ सुन लेते हैं, नाक से सुगन्धदुर्गन्ध का का पता लग जाता है, जीभ से स्वाद का पता लग जाता है, स्पर्श न्द्रिय (त्वचा) से कर्कश या कोमल आदि स्पर्श का अनुभव हो जाता है। इसलिए इन्द्रियाँ ही ज्ञान के केन्द्र हैं। परन्तु बाद में मालम हुआ कि इन्द्रियाँ तो मन की सहायता से ही जानती हैं । मन कहीं अन्यत्र उलझा हुआ हो, तो इन्द्रियाँ अपना काम नहीं कर पाती । आँख देख नहीं पाती, कान सुन नहीं पाते, जिह्वा रस को चख नहीं पाती, नाक सूघ नहीं पाती, और त्वचा को स्पर्शानुभूति नहीं हो पाती। अतः इन्द्रियाँ नहीं, मन ही ज्ञान का केन्द्र है । अतः आत्मा का यहीं पर कहीं-न-कहीं निवास है । इस स्थिति में साधारण जन मन को ही आत्मा समझने लगता है, उसी को 'मैं' समझ कर बैठ जाता है। ऐसी स्थिति में जब ब्यक्ति मन में झांकता है, मन के अन्दर प्रवेश करता है, तो उसे विकल्प - ही - विकल्प नजर आते हैं । काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकल्प असंख्य है । भगवान् महावीर ने कहा है कि ये विकल्प इतने हैं कि इनकी कोई संख्या नहीं है, असंख्य हैं ये । इतने अगणित विकल्पजाल हैं मनके. कि हम यहाँ मन तक पहुँच पाते हैं,लेकिन उससे आगे चल कर रुक जाने का मतलब यह है कि उन सबसे दूर जो दिव्य प्रकाश जगमगा रहा है अन्दर में, उस ओर दृष्टि जाती ही नहीं, हम वहीं से लौट पड़ते हैं।
सम्यक्त्व का यथार्थ दर्शन :
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