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'मैं' को पाने में अन्य बाधक चीजें :
दूसरी ओर, इस शरीर के साथ लगे हुए जो बाह्य पदार्थ नजर आते हैं, उनसे भी इन्सान घिरा हुआ रहता है । वे पदार्थ हैं- धन, सम्पत्ति, परिवार, जाति, प्रान्त, गाँव नगर, राष्ट्र, मकान, जमीन-जायदाद, मान सम्मान आदि। इन विकल्पों का घेरा भा मनुष्य के चारों ओर इतना बड़ा है, कि व्यक्ति बाहर में झांकता है, तो उसके सामने विराट् संसार खड़ा हो जाता है । उन सभी बीजों पर उसने 'मैं' और 'मेरे' की छाप लगा रखी है, इस कारण इस विशद संसार में ही उसका 'मैं' खो गया, उसका पता नहीं लग पा रहा है कि वह कहाँ है, कैसा है ?
एक शिष्य अपने स्वरूप की तलाश में किसी गुरु को खोजने निकला कि कोई उसे बताये 'मैं कौन हूँ ।' पता लगाते-लगाते एक जगह उसे कुछ लोग यह कहते हुए मिले - कि "अमुक जगह एक आत्मदर्शी गुरु रहता है । वह तलाशता हुआ वहाँ पहुँचा, तो कुटिया का दरवाज़ा बन्द था । गुरु अन्दर ध्यानस्थ थे । एक बार दरवाजा खटखटाया, तो कोई आवाज नहीं आई । दूसरी बार फिर खटखटाया, तो कोई नहीं बोला । तीसरी बार फिर खटखटाया गया, तो अन्दर से पूछा गया - 'कौन है ?' यह सुनते ही शिष्य ने कहा"कौन है ? इसी का पता लगाने के लिए ही तो मैं आपके द्वार पर आया हूँ ।" यदि मुझे पता लग जाता कि 'मैं कौन हूँ ?" तो यहाँ तक आने की आवश्यकता ही नहीं थी । मैं आपसे यही मालूम करने आया है कि "मैं कौन हूँ ?"
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सद्गुरु 'ने दरवाजा खोला, बाहर आए और कहा - " वत्स ! तू सच्चा जिज्ञासु बनकर आया है । कोई स्वर्ग की तलाश करने के लिए आता है, तो कोई संसार के ऐश्वर्य की तलाश करने आता है । और भी न मालूम कितनी तरह की कामनाएँ ले कर वे मेरा दरवाजा खटखटाते हैं । लेकिन, सच्चा शिष्य इस 'मैं' की खोज में रहता है, इसी 'मैं' की तलाश में यात्रा शुरू करता है । और, जब वह गुरु का दरवाजा 'मैं' की तलाश के लिए खटखटाता है, तब सच्चा शिष्य बन कर सामने आता है ।" गुरु ने उसे उपदेश दिया और आत्मा के स्वरूप की झाँकी दिखाई ।
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चिन्तन के झरोखे से :
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