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यात्री जंगल से होकर गुजर रहा था । रास्ते में उसे रत्नों का ढेर मिल जाता है । परन्तु वह यात्री आँख से अन्धा है । इसलिए पैरों को रत्नों का स्पर्श होते ही वह बड़बड़ाने लगता है कि "किस कम्बख्त ने रास्ते में इन कंकड़-पत्थरों का ढेर कर दिया। ये तो मेरे पैरों में चुभ रहे हैं। मालूम होता है, नादान बच्चों की शरारत है ।" आँखों से नही देख पाने के कारण उन बहुमूल्य रत्नों को कंकड़-पत्थर समझ कर बालकों को गालियाँ देता और मन ही मन कुढ़ता व दुःखी होता हुआ वह उन पर से आगे बढ़ जाता है । लाखों-करोड़ों के मूल्य के उन रत्नों को वह वहीं छोड़ जाता है ।
मैं आपसे पूछता हूँ - रत्नों का मूल्य ज्यादा है या आँखों का ? चूकि उस यात्री के आँखें नहीं थीं, इसलिए उसके लिए वे रत्न कंकड़ - पत्थर के तुल्य थे । सच तो यह है कि आँखें उन रत्नों से अधिक कीमती हैं । इससे भी एक कदम आगे एक और पहलू से सोचिये - आँखें यथास्थान मौजूद हैं, लेकिन आँखों के पीछे जो देखने वाला है, वह नहीं रहा तो करोड़ों के मूल्य के रत्न भी हों, और उनसे भी अधिक मूल्यवान् आँखें भी हों, किन्तु आत्मा नहीं है, तो इन सबका क्या मूल्य रह जाता है ? मृत शरीर में आँखें भी हैं, किन्तु उसके पीछे देखने वाला -- द्रष्टा नहीं रहा, तो उन आँखों की भी क्या कीमत रही ? प्रश्न है - यहाँ आँखों की कीमत ज्यादा है या उन आँखों के पीछे जो द्रष्टा - देखने वाला है, उसकी कीमत ज्यादा है ? स्पष्ट है, कि ऐसी स्थिति में तो आँखों की अपेक्षा आँखों वाले - द्रष्टा का मूल्य ही सबसे अधिक है ।
हाँ तो, निष्कर्ष यह निकला कि वह द्रष्टा ही सबसे बड़ी कीमत लिए बैठा हैं, जो इन्द्रियों और इन रत्नों से भी अधिक कीमत वाला है | वह कान, नाक, आँख, जीभ और स्पेशेंन्द्रिय से भी अधिक कीमती है । अगर हम उस द्रष्टा (आत्मा) की सम्यक् - अनुभूति कर सकें, तो हमें सम्यक्त्व की भूमिका प्राप्त हो सकती है । इन्द्रियों को ही ज्ञाता द्रष्टा मानने को भूल :
सर्वसाधारण लोगों को इन्द्रियों से अतिरिक्त आत्मा जैसी कोई चीज नजर नहीं आती । देखने, सुनने, सूँघने, चखने और
सम्यक्त्व का यथार्थ दर्शन :
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