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है। साधक की दृष्टि जितनी - जितनी अन्तरंग की ओर पहुँचती . है, उतनी ही उसकी साधना निखरती जाती है, दोष दूर होते जाते हैं, और आत्मा का विकास होता जाता है। ज्यों - ज्यों हम बाहर में देखने जाते हैं, त्यों-त्यों आत्मा से दूर होते जाते हैं । बाह्य दष्टि से देखने पर साधना का ठीक-ठीक रूप नजर नहीं आएगा। आप अन्ततः गलत भूमिका पर पहुँच जाएँगे।" 'मैं' के होने पर ही सभी गतिमान हैं :
- इसका अर्थ यह हुआ कि हम करना चाहते हैं-आत्म स्वरूप की झांकी, परन्तु हमारी दृष्टि केन्द्रित हो जाती है, इस विराट बाह्य संसार में, संसार की ताक-झांक में । हम मिट्टी के पिंड शरीर एवं इन्द्रियों के इस बीहड़ वन में ही कहीं-न-कहीं फँस जाते हैं । 'मैं' के वास्तिक स्वरूप को ठीक तरह नहीं पकड़ पाते हैं कि यह 'मैं' शरीर में है या शरीर से परे है ? यह 'मैं' इन्द्रियों में है या इन्द्रियों से परे है ? यह मन 'मैं' है या मन से स्वतन्त्र कोई 'मैं' है ?
शरीर अपने अधिष्ठाता के होने से हरकत करता है, अगर वह न रहे तो वह कुछ भी हरकत नहीं करता। यद्यपि शरीर उस समय भी मौजद रहता है, लेकिन 'मैं' के निकल जाने से वह हरकत करना बन्द कर देता है। ये इन्द्रियाँ और मन भी जब तक 'मैं' है, तभी तक हरकत करते हैं । जब 'मैं' निकल जाता है, तो इन्द्रियाँ ज्यों-की-त्यों बनी रहती हैं, लेकिन काम करना बन्द कर देती हैं । आँख देखती नहीं, नाक सूघती नहीं, कान सुनते नहीं, हाथ आदि स्पर्श का अनुभव नहीं करते, जीभ चखती नहीं, बोलती भी नहीं। इसका मतलब यह है कि शरीर और इन्द्रियाँ आदि को जो चेतना प्राप्त है, वह उसकी अपनी नहीं है। वह उधार ली हुई है। वह उधार चेतना देने वाला और कोई है, जो शरीर तथा इन्द्रियों पर (अपनी) रोशनी डालता रहता है। यदि वे स्वयं काम करते, तो उसके न रहते हुए भी करते । मगर उसके न रहने पर ये सब मौजूद रहते हुए भी कुछ काम नहीं कर पाते । बहुमल्य रत्न और आँखों से भी द्रष्टा का मूल्य अधिक :
इसलिए यह 'मैं' ही प्रमुख है, उसी का मूल्य ज्यादा है। इस बात को ठीक से समझने के लिए एक दृष्टान्त ले लीजिए-एक
चिन्तन के झरोखे से :
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