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स्थूलत: है, सूक्ष्मत: नहीं, अंशतः है, समग्रतः नहीं । बारह व्रत में सामायिक की विशेष साधना जो होती है, वह एक मुहूर्तकाल की होती है, जीवन पर्यन्त नहीं । भिक्षु की सामायिक दीक्षा यावज्जीवन की होती है, सामान्यतः भी, विशेषतः भी। और वह सूक्ष्मतः एव समग्रतः ही होती है, स्थूलतः तथा अंशतः नहीं । दीक्षा की महा साधना का भार जीवन - पर्यन्त वहन करना, साधारण बात नहीं है । कुछ समय के लिए तो गुरु से गुरुतर भार को भी उठाया जा सकता है, किन्तु जीवनभर उसे उठाये रखना, वस्तुतः आन्तरिक वैराग्य की तीव्रता का ही प्रतिफल है ।
तीन करण : तीन योग :
श्रमण की सामायिक दीक्षा 'तिविहं तिविहेणं' है । इसका अर्थ है-तीन करण और तीन योग । कृत, कारित, अनुमोदित, ये तीन करण हैं, और मन, वचन, काय, ये तीन योग हैं । इनके नौ विकल्प होते हैं, जिन्हें नव-कोटि कहा जाता है । कोटि अर्थात् प्रकार । अस्तु सर्वसावद्य प्रत्याख्यान के ये नौ भेद इस प्रकार हैं ।
मन - १. मन से करूँ नहीं । २. मन से कराऊँ नहीं । ३. मन से अनुमोदूँ नहीं । वचन – १. वचन से करूँ नहीं । २. वचन से कराऊँ नहीं । ३. वचन से अनुमोदूँ नहीं । - १. काय से करूँ नहीं ।
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काय
२. काय से कराऊँ नहीं । ३. काय से अनुमोदूँ नहीं ।
यह नवकोटि अतीत, अनागत, वर्तमानकाल के सम्बन्ध से सप्तविंशति कोटि रूप बन जाती है। मुनि, हिंसादि सावद्य कर्मों का त्याग तीनों काल के लिए करता है । अतीत के त्याग का अर्थ है - पूर्वकृत पाप कर्मों से पूर्णतया अपना सम्बन्ध समर्थन हटा लेनापूर्वजीवन का विसर्जन : पुनर्जन्म :
दीक्षा पाठ का अन्तिम शब्द 'अप्पाणं वोसिराम' है । इसका अर्थ है - आत्मा का त्याग | आत्म - त्याग से अभिप्राय है – पूर्व
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चिन्तन के झरोखे से :
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