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इसी प्रकार जीवन के सुख-दुःख, नरक-स्वर्ग, ये सब कहाँ से आ कर जन्म ले लेते हैं ? इसी तरह गरीबी-अमीरी, अपमान-सम्मान, सुरूपता-कुरूपता, यश-अपयश आदि सब - के - सब विकल्प कहाँ से आ कर हमें घेर लेते हैं ?
अगर आप ठीक तौर से सोचें और गहराई से विचारें, तो ये सब भौतिक रूप और कुछ नहीं हैं, ये सब हमारी आत्मा के शुभाशुभ विकल्पों में से ही जन्मे हैं। हमारी अन्तरात्मा के एक विकल्प से स्वर्ग खड़ा हो जाता है, तो दूसरे विकल्प से नरक उपस्थित हो जाता है । आत्मा में से ही ये सुख - दुःख आदि सारे भौतिक रूप जन्म लेते हैं । ये कहीं बाहर से नहीं आते । शुभ-अशुभ विकल्पों का जन्मदाता-अन्तरात्मा :
वस्तुतः आत्मा को दो दृष्टियाँ हैं-एक दृष्टि बहिर्मुखी होती है, एक होती है अन्तर्मुखी। जो बाह्य-दष्टि है-बाहर के आधार हैं-वहाँ या तो पाप की दृष्टि होगी, या होगी पुण्य की दृष्टि । इसके सिवा कोई तीसरी दष्टि बाहर की नहीं है। हिंसा, घृणा, वैर, क्रोध, विकार, वासनाएँ, ये सब पाप के विकल्प हैं। यश, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, स्वर्ग, सम्मान, स्वस्थ शरीर, सुबुद्धि आदि जितने भी विकल्प हैं, ये सब पुण्य के विकल्प हैं। विश्व का प्रत्येक प्राणी अमुक अंश में पाप के विकल्प ले कर आता है, और अमुक अंश में पुण्य के । हिंसा, घृणा, द्वष आदि जब प्राणी के अन्तर् में फूट पड़ते हैं, तो अन्तरात्मा पाप की भावना से लिप्त होता है, जिसका प्रतिफल वैसे ही कुरूप शरीर, रोग, अपयश तथा नरक आदि के रूप में प्रतिबिम्बित होता है । पाप की भावना एवं पाप की क्रिया से उपर्युक्त दुःखरूप स्थितियां प्राप्त होती हैं।
इसी प्रकार मान-अपमान, यश-अपयश, आदर-अनादर भाव आदि भी हमारी चित्त-वृत्तियों के ही भौतिक अंश हैं। इनमें से जो खराब अंश हैं, वे सब पाप के अंश हैं और जो अच्छे अंश हैं, वे सब पुण्य के भाग हैं। ये सब चीजें हमारी शुभाशुभवृत्तियाँआसुरी और देवी, काम कर रही हैं। पाप और पुण्य की पहिचान :
पाप की पहचान तो बहुत ही आसानी से हो जाती है । हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी,काम-वासना, किसी को पीड़ा देना,किसी को पुण्य और धर्म की गुत्थी ।
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