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समण धर्म की साधना का यह अर्थ नहीं कि सभी को भिक्षु हो जाना है । सभी का तथारूप भिक्षु होना असम्भव है । गृहस्थ भी मर्यादित रूप में अपनी जागृत शक्ति के अनुसार जितना भी अंश समण भावना का अपने जीवन में अवतरित एवं विकसित करता है, वह भी समण धर्म की ही साधना है । धर्म दो नहीं, एक ही है । बाहर में धर्म के भले ही नाना रूप हों, किन्तु अन्दर में तो धर्म का ध्रुव एकत्व ही रहता है। आंशिक साधना के कारण ही बाहर में धर्म में नानात्व परिलक्षित होता है । यही कारण है कि भगवान् महावीर ने भगवती २० श०, उ० ८ में साधु, साध्वी, श्रावक (गृहस्थ पुरुष) और श्राविका (गृहस्थ नारी) सबको मिलाकर 'समण-संघ' कहा है
"तित्थं पुण चउव्वण्णे समण संघे, तंजहा - समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ ।"
सितम्बर १९७३
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समण शब्द का निर्वाचन :
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श्रमण भगवान् महावीर के सम्मति-तीर्थ में श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका - चारों मोक्ष - मार्ग के साधक हैं, चारों का समन्वित रूप ही तीर्थ है । जिनशासन में जाति, पंथ वर्ण, स्त्री-पुरुष आदि बाह्य भेदों का कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व है - आत्म- गुणों का, अन्तर्-ज्योति का । इसलिए अध्यात्म साधना के क्षेत्र में श्रमणी का भी वही महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो श्रमण को प्राप्त है और श्राविका की साधना भी उसी स्तर पर है, जिस स्तर पर श्रावक की साधना है । अतः लैंगिक आधार पर किसी एक को श्रेष्ठ और दूसरे को निम्न मानना नितान्त गलत है । अध्यात्म-साधना के उच्चतम शिखर का संस्पर्श कर श्रमणी अर्थात् साध्वी भी राग-द्वेष से मुक्त होकर सिद्धत्व को पा लेती है ।
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