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घोड़ा कहने में घोड़ा विशेष्य मुख्य है, काला विशेषण गौण है । वैसे ही 'सराग - संयम' कहने में संयम- विशेष्य मुख्य है और सरागविशेषण गौण है । इसलिए यहाँ देवगति का एक कारण चाहे सराग-संयम हो, फिर भी देवगति के हेतु में मुख्यता संयम विशेष्य की हुई, और गौणता सराग विशेषण की । मतलब यह है कि देवगति के हेतु में संयम की बलवत्ता आ गई । यानी संयम' जो है, वह देवगति का मुख्य हेतु रहेगा और 'सराग' जो है, वह विशेषण के रूप में गौणरूप में रह सकता है । मैं समझता है, शब्द - शास्त्र की बारीकी के रूप में यह बात आपके ध्यान में आ गई होगी ।
इस दृष्टि से अगर 'संयम' को ही मुख्यतया देवगति का हेतु मानेगें तो फिर वही घपला आ खड़ा होगा । मेरा विचार इससे आगे चलता है । मैं इसका समाधान यों करता हूँ कि 'सरागसंयम' शब्द व्यवहार - भाषा का है, निश्चय - भाषा में ऐसा प्रयोग नहीं होता । व्यवहार - भाषा में तो यों कहा जाता है-रागसहित जो संयम है, वह संयम देवगति का हेतु हो गया, लेकिन निश्चय भाषा में यों कहा जाएगा - संयमसहित जो रांग है, वह देवगति का हेतु है । आखिर जो बन्धन है – देवगति की प्राप्ति है, उसमें संयम तो कथमपि हेतु है ही नहीं, हेतु तो राग ही हो सकता है । लेकिन कौन-सा राग ? अशुभराग नहीं, शुभराग ही होना चाहिए । इसीलिए शुभराग को गतार्थ करने के लिए संयमसहित राग कहा गया, और शुभराग को ही स्वर्ग का, शुभ बन्धन का कारण ठहराया गया । अगर आप रागसहित संयम को देवगति का हेतु बताएँगे, तो तत्त्वदृष्टि से समाधान नहीं होगा, वह एक तरह का औपचारिक (उपचार) वचन होगा, निश्चय वचन नहीं । इस उपचार - वचन को समझने के लिए एक दृष्टान्त ले लें - किसी भाई ने घी गर्म किया या दूध गर्म किया। वह उबलता या उफनता हुआ घी या दूध उसके शरीर पर गिर पड़ा, उसका शरीर जल गया । इस पर लोग कहते हैं- 'अजी, वह घी से जल गया या दूध से जल गया । सोचिये जरा, 'घी या दूध से जल गये' यह जो हमारी भाषा है, वह व्यवहार - भाषा है या निश्चय-भाषा ? देखा जाए तो यह व्यवहार-भाषा है । अगर कहें कि वह व्यक्ति घी या दूध से जल गया था, तो सभी आदमी घी या दूध से क्यों नहीं जल जाते ? क्या
पुण्य और धर्म की गुत्थी :
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