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" णत्थि य से कोइ दोसो,
एएण
पिओ य सव्वेसु जीवेसु 1 समणो,
होइ
एसो अन्नो वि पज्जाओ || "
-जो किसी से द्वेष नहीं करता, जिसको सभी जीव समान भाव से प्रिय हैं, वह समण है । यह समण का दूसरा पर्याय है ।
टीकाकार आचार्य श्री हेमचन्द्र उक्त गाथा के 'समण' शब्द का निर्वचन 'सममन' करते हैं, जिसका सब जीवों के प्रति सम अर्थात् समान मन अर्थात् हृदय हो, वह 'सममन' कहलाता है । निरुक्त विधि के अनुसार 'सममन' के एक मकार का लोप होकर 'समन' हो गया है
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सर्वेष्वपि जीवेषु सममनस्त्वात्, अनेन भवति समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना 'समना' इत्येषोऽन्योऽपि पर्यायः ।'
"तो समणो जइ सुमणो,
भावेण जइ न होइ पाबमणो । सयणे य जणे य समो,
समो य माणाव माणेसु ॥"
- समण सुमना होता है, वह कभी भी पाप मना नहीं होता । अर्थात् जिसका मन सदैव प्रसन्न, स्वच्छ, निर्मल रहता है, कभी भी कलुषित नहीं होता, जो स्व-जन एवं पर-जन में, तथा मानअपमान में सर्वत्र सम रहता है, सन्तुलित रहता है, वह समण है । सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्धान्तर्गत १६ वें अध्ययन में भगवान् महावीर ने साधु के माहण, समण, भिक्खु और निग्गंठइस प्रकार चार सुप्रसिद्ध नामों का वर्णन किया हैं । प्रस्तुत में मात्र 'समण' शब्द के निर्वचन का ही प्रसंग है, अतः इनमें से केवल 'समण' शब्द का निर्वचन ही भगवान् महावीर के प्रवचनानुसार स्पष्ट किया जा रहा है ।
- "जो सर्वत्र अनिश्रित है- आसक्ति नहीं रखता है, किसी प्रकार की सांसारिक भोगोपभोग आदि की कामना नहीं करता है, किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता है, किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, काम-वासना के विकार समण शब्द का निर्वाचन |
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