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पास आने वाले सभी लोग सहसा समझ जाते थे, और उनके अनुयायी बन जाते थे, उनसे बढ़कर अज्ञता किसमें हो सकती है ? परम्पराओं के बदलने पर बड़ा संघर्ष होता है, किन्तु महावीर ने परम्पराओं को बदला । उनकी दृष्टि में पंथ और धर्म अलग-अलग चीजें हैं । पन्थ शरीर है और धर्म है, उसकी आत्मा । शरीर अलग है, आत्मा अलग है । विषाक्त फोड़ा हो जाने पर शरीर के अंग को तो काटा जाता है, पर आत्मा को नहीं । पैर में फोड़ा हो जाने पर कभी - कभी पैर कटवाना पड़ता है । किस लिए ? आत्मरक्षा के लिए | अगर उस समय पैर न काटा जाए, तो वह और अधिक सड़ जाएगा । उसमें कीड़े पड़ जाएँगे । यहाँ तक कि सारा शरीर ही सड़ - गल जाएगा । और, इसका आखिर यह परिणाम होगा कि शरीरधारी कराहता हुआ अशान्तिवश अपनी आत्मा को दुर्गति में ले डूबेगा । अतः शरीर की तब तक रक्षा की जाती है, जब तक आत्मा की उन्नति हो, धर्म एवं कर्तव्य का पालन उसके द्वारा होता रहता हो । यही बात परम्परा के विषय में है । यदि धर्म के प्रति परम्पराएँ फोडे का रूप ले लेती हैं, तो उन्हें काटना पड़ता है । क्योंकि वे धर्म के शुद्ध रूप को सड़ा देती हैं, विकृत कर देती हैं । यदि वे परम्पराएँ स्वस्थ हों, धर्म को सक्रिय रखती हों, तो उन्हें अवश्य सुरक्षित रखना चाहिए ।
तर्क की धार पर :
जैन-धर्म धर्म के क्षेत्र में भी तर्क की केंची लेकर चलता है । आपने पनवाड़ी को देखा होगा । जिधर से पान गलता देखता है, उधर से पनवाडी झट से कैंची लेकर काट देता है । ऐसा करता है तो उसकी पान की डलिया सुरक्षित रहती है । वह गले - सड़े पान को न काटे, तो उसकी सारी - की - सारी डलिया सड़ कर खराब हो जाए। जैन धर्म भी पनवाड़ी की तरह है । वह भी देखता है कि अमुक परम्परा गल सड़ गई है, तो उसे कतर देना, काट देना ही ठीक प्रतीत होता है । आज भी यही बात है । हम देखते हैं कि अलग- अलग परम्पराएँ चल रहीं हैं । उनका खानपान और रहन-सहन अलग - अलग है, और ऐसा मालूम होता है. जैसे 'नौ कन्नौजिये, तेरह चूल्हे' हों । उन परंपराओं को काटने की बातें चल रही हैं, और यह आवश्यकता महसूस हो रही है, कि
चिन्तन के झरोखे से :
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