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प्रचलित रीति - रिवाजों और परम्पराओं को ही धर्म मानकर चलना, ठीक नहीं है। परम्पराएँ तो बदलती रहती हैं। एक तीर्थकर की परम्परा दूसरे तीर्थंकर से भिन्न होती है। अगर ऐसा न माना जाए, तो भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा में मेल कैसे बैठेगा ? पार्श्वनाथ की परम्परा भिक्षु के लिए रंगीन वस्त्र लेने का निषेध नहीं करती, जबकि महावीर की परम्परा रंगीन वस्त्रों का निषेध करती है, मात्र श्वेत वस्त्रों का ही विधान करती है । एक परम्परा स्थिरवास को ठीक समझती है, तो दूसरी नहीं। श्रमण भगवान महावीर की परम्परा कहती है-प्रति दिन सुबह-शाम प्रतिक्रमण करना चाहिए, जबकि भगवान् पार्श्वनाथपरम्परा कहती है कोई जरूरत नहीं है, रोज इस प्रकार प्रतिक्रमण करने की। जिस क्षण दोष लगे, तभी प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। पार्श्व परम्परा वर्षावास (चौमास) के नियम को स्वीकार नहीं करती, जबकि महावीर परम्परा उसे दृढ़ता से स्वीकार करती है। मैंने एक दिन कहा था-तीर्थंकरों की परम्परा में भी शासन - भेद होता है। शासन का अर्थ है-शिक्षा । तात्पर्य यह है, कि तीर्थंकरों की शिक्षाएँ भी परस्पर भिन्न होती हैं । ऐसा क्यों होता है ? तीर्थकर देश-काल को देखकर शिक्षा में परिवर्तन कर देते हैं। जो यह समझते हैं कि तीर्थंकरों का शासन अनादि-अनन्त काल तक हमेशा एक रूप में ही रहता है, उनसे बढ़कर कोई अज्ञानी नहीं। आजकल तो थोड़ा-सा भी परिवर्तन होते ही आप लोग बोखला उठते हैं, जैसे कि आप समझते हैं, हमारा सर्वस्व लुट रहा है । सत्य और समर्पण :
भगवान् महावीर के पास पार्श्व परम्परा और अन्य परम्पराओं के कई साधक ऐसे आए थे, जिन्होंने पहले पहल उन्हें वन्दन नहीं किया । और, उन के कैवलज्ञान की परीक्षा के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी। जब तक उनकी समझ में नहीं आया, तब तक वे संघ में प्रविष्ठ नहीं हुए। और जब वे समझे, तो उन्होंने संघ में प्रविष्ठ होकर भगवान् को आत्म - समर्पण कर दिया। ऐसा नहीं हुआ कि भगवान् को केवलज्ञान होते ही सब विरोध सहसा शान्त हो गए । पन्थ और सम्प्रदायवादी लोग अपना आग्रह छोड़ते नहीं थे। जो ऐसा समझते हैं, कि भगवान् को केवलज्ञान होते ही उनके धर्म और परम्पराएं:
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