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माया- -कुटिलता मिथ्यादृष्टि का लक्षण है । अतः जो मायावी है, वह चाहे कितना ही बड़ा ज्ञानी और विद्वान क्यों न हो, उसकी दृष्टि मिथ्या है, उसका ज्ञान भी अज्ञान है ।
जीवन के राहु-केतु :
आज के जीवन में चाहे वह व्यक्तिगत जीवन है, पारिवारिक या सामाजिक जीवन है, अथवा राष्ट्रिय जीवन है, उसमें सर्वत्र राजनीति का नाटक खेला जा रहा और आज की राजनीति कुटिलता का पर्याय बन गई है । जीवन के हर चरण पर छल-छद्म, विश्वासघात, और दुराव छिपाव की दुर्वृत्तियाँ छाई हुई हैं । पिता पुत्र के हृदय एक दूसरे से छिपे हुए हैं, पति - पत्नी के मनों में भी भेद - छिपावट है । सहोदर युगल बन्धुओं के हृदय भी एक-दूसरे के सामने खुल नहीं सकते । मन के संकल्प कुछ और हैं, वाणी में कुछ और झलक रहा है और व्यवहार तो कुछ और ही विचित्र है । मन - वचन कर्म में कोई संगति नहीं है । सर्वत्र जीवन के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं, मानो आदमी खण्ड-खण्ड होकर जी रहा है । पौराणिक गाथा के केतु की तरह मनुष्य भी आज दो खण्डों में विभक्त हो गया है, उसका चिन्तन एक अलग खण्ड में जा पड़ा है, और कर्म दूसरे अलग खण्ड में ।
राहु
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पौराणिक गाथा है, कि समुद्र-मंथन के समय अमृत प्राप्त हुआ, तो देवताओं ने विष्णु से प्रार्थना की-अमृत दैत्यों को न दिया जाए । वे ऐसे ही बड़े शक्तिशाली और दुर्जेय हैं, फिर अमृत पी? लेंगे तो गजब ही ढाने लगेंगे । अस्तु, विचार विमर्श के बाद विष्णु ने सब देवताओं को गुप्त स्थान पर एक पंक्ति में बिठाया और स्वयं अमृत पिलाने लगे । राहु जो दैत्य था, उसे अमृत पीने की लालसा जगी । छद्म से उसने देवता का रूप बनाया और देव पंक्ति में कहीं बीच में चुपके से आ बैठा । उठ कर वह बार- बार देखने लगा, कहीं अमृत खत्म न हो जाए और मैं योंही कोरा-का- कोरा न रह जाऊँ । देवों ने उसकी चंचलता और पंक्ति को भंग करके इधर-उधर लपकने की वृत्ति देखी, तो डाँटा - तू कैसा देवता है, जो पंक्ति को तोड़कर इधर-उधर आगे-पीछे जाना चाहता है। राहु विनम्र भाव से विष्णु से
पंक्ति के बीच में से
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चिन्तन के झरोखे से :
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