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वहाँ तर्क की भी पहुँच नहीं है । वहाँ पहुँच है, एकमात्र अनुभूति की । अनुभूति अपनी होती है । दूसरे की अनुभूति अपने लिए अनुभूति नहीं, केवल जड़ शब्द होते हैं । और ये शब्द परोक्ष रूप में एक धुंधलाता सा सत्य अवश्य उभारते हैं, मानव मन में | किन्तु यह सत्य स्पष्ट तथा प्रत्यक्ष कभी नहीं होता । किसी के कहने से भी मिश्री के मिठास का ज्ञान हो सकता है और मिश्री को जिह्वा पर चखने से भी उसके मिठास का अनुभव होता है । पर आप जानते हैं, दोनों में कितना अन्तर होता है । आकाशपताल से भी ज्यादा अन्तर है दोनों परिबोधों में । यह अन्तर हैं, शब्दबोध और अनुभूतिबोध में । अन्तर्जगत् में परमात्म-तत्त्व का बोध अनुभूति बोध के क्षेत्र में आता है, शब्द बोध के क्षेत्र में नहीं । अतः यहाँ गुरु और शास्त्र से बहुत कुछ सीख लेने के बाद भी शून्य ही रहता है, यदि साधक स्वयं अनुभूति की गहराई में नहीं पैठता है तो । आज तक के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि किसी ने अपनी आँख खोले बिना दूसरे की आँख से वस्तु - दर्शन कर लिया हो । हर साधक की खोज अपनी, और अपनी ही होती है । दूसरे की नकल, नकल तो हो सकती है, पर वह कभी असल नहीं हो सकती । सत्य एक है, परन्तु उसकी खोज की प्रक्रियाएँ भिन्न भिन्न होती हैं । इसीलिए एक वैदिक ऋषि ने कहा था कभी चिर अतीत में
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" एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति "
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महावीर और बुद्ध एक युग के हैं, पर दोनों की शोध - क्रिया भिन्न है । और तो क्या, एक ही परम्परा के पार्श्व और महावीर की चर्या पद्धति भी एक दूसरे से पृथक् है । अनन्त आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरने वाले पक्षियों की भाँति परम-तत्त्व की खोज में निकले यात्रियों के मार्ग भी भिन्न की कहीं कोई एक धारा निश्चित नहीं हो उतने पथ । यही कारण है कि परमाणु की खोज की अपेक्षा परमात्मा की खोज अधिक जटिल है । इसकी सदा सर्वदा के लिए कोई एक नियत परम्परा नहीं बन सकती
"विधना के मारग हैं तेते, सरग नखत तन रोखां जेते ।"
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भिन्न रहे हैं । इनके मार्गो सकी है। जितने यात्री
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चिन्तन के झरोखे से :
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