Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 38
________________ जिस साधना का समय ही प्रयोजना है, वह साधना सामायिक है 'सम् एकी भावे वर्तते । तद यथा, संगत घतं संगतं तैलमित्युच्त एकीभूतिमिति गम्यते । एकत्वेन अयनं गमनं समयः । समय एव सामायिकम्, समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य मामायिकम् । उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में यह भाव है कि अपने मन, बचन और काय को पाप मूलक वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों से हटाकर शुद्ध स्वरूप के एक शाश्वत ध्येय की ओर लगा देने का नाम सामायिक है । सामायिक का साधक सांसारिक शुभाशुभ के केन्द्र से हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक केन्द्र की ओर गतिशील होने के लिए मन को वश में करता है. वचन को वश में करता है, काय को वश में करता है, राग-द्वष आदि के दुर्भावों को हटा कर शत्रुमित्र आदि कहे जाने वाले सबको समान - दृष्टि से देखता है-न किसी पर द्वष और न किसी पर राग अर्थात् अच्छे - बुरे सभी सांसारिक द्वन्दों में समभाव धारण कर लेता है। फलतः उसका जीवन सब ओर से निर्द्वन्द्व हो कर सहज शान्ति एवं समभाव की आध्यात्मिक भावधारा में बहने लगता है। उक्त भाव को स्पष्ट करने के लिए ही प्रतिज्ञा पाठ में कहा है--'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि ।' मैं सब प्रकार के हिंसा, असत्य आदि सावद्य-पाप - कर्मों का प्रत्याख्यान करता हूँ। वृत्ति और प्रवृत्ति : दीक्षा सूत्र के पाठ में 'सव्वं सावज्जं जोगं' से सम्बन्धित अंश क्या जीवन व्यवहार में खरा उतरता है ? क्या यह संभव है, कि साधक व्यक्ति वस्तुतः सब प्रकार की हिंसादि सावध - प्रवृत्तियों के प्रत्याख्यान का पालन पूर्ण रूप से कर सकता है ? भिक्षु गोचरचर्या आदि के लिए गमनागमन करता है, तो हिंसा हो जाती है। भोजन जब अन्दर में जाता है, और उसका परिगलन होता है, तो उसमें असंख्य संमूच्छिम जीवों का जन्म - मरण होता है, हिंसा हो जाती है। शौचादि एवं श्वसनादि क्रियाओं में हिंसा होती है। शास्त्र में जल - संतरणादि का उल्लेख है, उसमें भी जलीय जीव, श्रमण-परम्परा की सामायिक-साधना : २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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