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1 आवश्यकता और तृष्णा मे बडा ही अन्तर है । आवश्यकता जहाँ मनुष्य को आगे बढने में सहायक है, वहां तृष्णा उसको पतन की ओ ले जाने वाली है। आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है, किन्तु तृष्णा की नही। आवश्यकता फिर भी सीमा मे आवद्ध है, जवकि तृष्णा का अन्तरिक्ष के समान कही कोई छोर ही नही है, जिसका कही कुछ किनारा ही नही मिल पाता। यदि पेट मे भूख लगे तो उसको तृप्त किया जा सकता है, परन्तु मन मे धन की अथवा अन्य किसी भी प्रकार की तृष्णा उत्पन्न हो तो वह कैसे बुझ सकती है ? पेट की सीमा है, परन्तु पेटियो की नही । यह एक सामाजिक माग रही है कि मनुष्य स्वयं को तृष्णा से दूर रखते हुए, साथ ही आवश्यकताओ को भी सीमित करते हुए, दूसरो को भी समान विकास का अवसर प्रदान करे । तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र मे शान्ति का वातावरण उद्भूत हो सकता है।
बिन्तन-मन | ३२