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- प्रेम कोई बाहर से अन्दर मे डाल देने जैसी वस्तु नही है। वह तो अन्दर मे ही है। मात्र आवश्यकता है उसे अनावृत्त करने की। प्रस्फुटित कर वाहर लाने की । मूर्तिकार पत्थर को तोडता है, हथौडे छैनी से छीलता है, इस प्रक्रिया से नया क्या बनाता है वह ? मूर्ति पत्थर के अन्दर मे छुपी हुई है । मात्र पत्थर को काट-छाँट कर, सही तरीके एव प्रक्रिया से तराश कर, उसे बाहर लाने का ही प्रश्न है । कुआँ खोदने की प्रक्रिया नये जल का निर्माण नहीं करती। वह तो धरती के गर्भ मे अजस्र रूप से प्रवहमान है ही। केवल धरती की परतो को तोड कर उसे बाहर लाने की आवश्यकता है। - इसी प्रकार से ईश्वरत्व कहिए, परमात्म तत्व कहिए यह भी मानव के अन्तर मे ही छुपा हुआ है। केवल आवश्यकता है इसके प्रकटीकरण की। यह ईश्वरीर तत्व अथवा परमात्म तत्व ही तो प्रेम है, जो मानव के महामानव के राजपथ पर ले आता है। यह वह राजपथ है जे भुक्ति से मुक्ति की ओर जाता है ।
चिन्तन-कण | ७६