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धर्म मनुष्य - मनुष्य के मध्य कोई विभाजक रेखा नही
खीचता । वह तो केवल बिखराव को सहेजना ही जानता है । जो मनुष्य को मनुष्य से अलग कर देने की प्रेरणा दे, वह धर्म कदापि नही हो सकता, वह धर्म के वेष मे कुछ और वेशक हो । धर्म मनुष्य मात्र मे क्या ? वह तो प्राणी मात्र मे अपनत्व की भावना का बीजारोपण करता है । धर्म मनुष्य को सहिष्णु बनने की प्रेरणा देता है । वह तो शत्रु से भी प्रेममय व्यवहार करने की कल्याणकारी शिक्षा देता है । इसी विश्ववात्सल्य के प्रेरणा रूप धर्म के नाम पर हिंसा, घृणा, द्व ेष, और विग्रह का बवडर खड़ा कर देना अज्ञानता नही तो और क्या है ? हम भूल जाते हैं कि धर्म कालजयी होता है । अत जाने अनजाने उस पर किए गए किसी भी प्रकार के प्रहारो से उसका कुछ भी बिगडने वाला नही है । धर्म कोई कच्ची मिट्टी अथवा काँच का खिलौना नही है, जो जरा सी ठेस लगते ही टूट जाएगा । धर्म जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य की पूर्ति करता है । आत्मा को परमात्मा के उच्चपद तक ले जाता है ।
चिन्तन-कण | ८३०