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गगा हिमालय से निकलती है, और सागर को जाती है। समुद्र कितना ही दूर क्यो न हो उसका लक्ष्य वही है, और वह अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर अनवरत गति से उछलती-कूदती चली जा रही है। वह किसी से पूछने के लिए नही रुकती कि सागर कितनी दूर है ? हाँ, बाँध बना कर कोई इजिनियर भले ही उसे रोक ले, परन्तु ज्यो ही बांध टूटेगा वह फिर सागर की ओर ही बह निकलेगी। उसकी दिशा में परिवर्तन नही आ सकता। यह निश्चित है कि बांध कभी न कभी टूटेगा ही। बन्धन टूटने के लिए ही हुआ करते हैं । निर्बन्ध अवस्था ही आत्मा की अपनी स्थिति है।
मानव जाति मे जात-पात, पथ-सम्प्रदाय, वर्णभेद, रगभेद, भाषा, वर्ग तथा राष्ट्र भेद आदि की जो दीवारें हैं, ये टूटें तो प्रेम की गगा जन-मन मे फिर से वह निकले । समय आ रहा है, अब इनकी उपयोगिता समाप्त होती जा रही है। विश्व बन्धुत्व की मदाकिनी फिर मे प्रवाहित होगी।
१६ / चिन्तन-कण