________________
0 दृष्टि की एक सीमा है । थोड़ी दूर पहुंच कर वह रुक जाती है। आगे देखने के लिए उसे देखे गए छोर तक पहुंचना होता है। एक यात्री सडक पर चल रहा है। उसका लक्ष्य दस या बीस या तीस मील आगे जाना है। जहां वह खडा है यदि वहां से ही वह अपने लक्ष्य-विन्दु को देखना चाहे तो यह असम्भव है। वह अपने सामने का कुछ ही रास्ता देख पाता है। शेष अनदेखा ही रहता है। किन्तु यात्री ज्यो-ज्यो आगे बढता है, दिशा पकडता है तो आगे का पथ प्रकाशित होता चला जाता है । उसका उठने वाला प्रत्येक पग मजिल की दूरी कम कर देता है । फिर वह एक दिन अपने लक्ष्य पर अवश्य ही पहुंच जाता है। इसलिए दृढ सकल्प
और मजबूत कदमो से चलते चले जाओ, प्रकाश मिलता चला जाएगा। मार्ग स्पष्ट होता जाएगा और मजिल निकट आनी जाएगी। चर. वेति ! चर वेति !
चिन्तन-कण | १०५