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भारतीय संस्कृति ने मनुष्य को एक आदर्श दिया, एक विचार दिया, एक चिन्तन दिया, जो उसमे रहे हुए दुर्गुणो को निकाल टालने की एक प्रक्रिया है, एक साधन है । है वह बहुत सामान्य सी वात, परन्तु परिणाम उसका वडा ही सुन्दर एव उत्कर्ष से परिपूर्ण है । वह विचार है आत्मनिरीक्षण का । वह चिन्तन है स्वदीप दर्शन का । अधिकाशतः मानव जगत मे दूसरे के दोष देखने की गन्दी वृत्ति पाई जाती है । भारतीय चिन्तको ने इस वृत्ति को उखाड फेंकने के लिए नही कहा । उन्होंने तो केवल इसकी दिशा परिवर्तन करने की ही बात कही । इस दोपदर्शन की वृत्ति को अपने अन्तर मे झाकने दो । चाहर अन्य किसी की ओर मत देखो । स्वय मे रही दुर्वलताओ को ही देखो, समझो और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करो । यही मे आत्मालोचन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है । जो जीवन को मांज-धोकर निखार देती है, उसे स्वच्छ एव शुद्ध स्थिति की ओर ले जाती है
८२ | चिन्तन-कण