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। अपने को ज्ञानी अथवा पूर्ण पण्डित समझ लेने का भ्रम पूर्ण अभिमान साधक को साधना-पथ से गिरा देता है । आत्मिक दृष्टि से उसे नष्ट कर डालता है। अत साधक के लिए उचित है कि वह अपने को उत्तरोत्तर पूर्णता तक पहुंचाने की चेष्टा करे । मिथ्या अभिमान के दल-दल से बच कर निरभिमानी व्यक्ति ही कछ प्राप्त कर सकता है । और जो सदैव कुछ न कुछ ग्रहण करते रहने के लिए अपनी ज्ञानेन्द्रियो के द्वार उन्मुक्त रखता है, वही कुछ सीख सकता है।
चिन्तन-कण | ५५.