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- मनुष्य जब तक बाहर मे अपने आप को विखेरे रखेगा तब तक तत्व से दूर ही रह जाएगा । उसके मन-एव इन्द्रियो का
व्यापार जव तक बहिर्मुखी रहेगा तब तक सम्बोधि की प्राप्ति , -असम्भव है। अपने को सब ओर से-समेट-सहेज कर जव मनुष्य ,अपने मे ही पूर्ण तन्मयता-पूर्वक डूब जाता है अद्वैतभाव से, तो - अमृत के स्रोत उसके अन्दर से ही फूट.पडते हैं। फिर-मानव का -- तन-मन अमृत-रस से सराबोर हो उठता है। निगूढतम रहस्यो
पर से आवरण हटता हुआ चला जाता है ऐसी अवस्था मे । रहस्यो का भेदन करते हुए,फिर आत्मा स्व स्थित होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता हैं
चिन्तन-कण | ६१