________________
इस संस्करण के संदर्भ में
सत्रह
करने व मुद्रित करने हेतु प्रत्येक जैन पत्र उत्सुक रहता था । इनमें भी पुनः जैन बोधक तो आचार्य श्री का पार्यवाची ही हो चुका था ।।
वैभवपूर्ण संकलनों के अतिरिक्त मुनिवर्य कुंथूसागर जी, जो कि आचार्य श्री से ही दीक्षित थे व संस्कृत - प्राकृत महाभाषाओं के ज्ञाता, महान शास्त्रज्ञ तथा जिनके लिखे साहित्य का पारायण स्याद्वादी विद्वान भी करते थे, ने भी सन् १९३६-३७ में श्री शांतिसागर चरित्र को लिखा था, जिसके कि कुछ अंश जिनमें आचार्य श्री के गुरु आदि का वर्णन है, को हमने इस संस्करण के अंत में परिशिष्ट - २ शीर्षक से विभाजित अंतरे ( कॉलम) में दिया है ।
आचार्य श्री से संबंधित जैन मित्र के भी विशेषांक छप चुके थे ।
निश्चित ही मैं इन सभी महानुभावों का जिन्होंने कि आचार्य श्री की स्मृतियों को बिखरे मोतियों सदृश्य संकलित करके रखा व आदरणीय पंडितजी का, जिन्होंने कि उन बिखरे मोतियों को कुशल कारीगर की मानिन्द माला में गुंफित कर सुंदर सी माला में परिमित कर हमारे लिये उपलब्ध करवाने का अद्वितीय उद्यम किया, हृदय से अभिवादन करता हूँ / नमन करता हूँ, इन सभी के कारण चारित्र - चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी आज भी हमारे मध्य जीवित सम बने हुए हैं, वरना आचार्य श्री हमारे लिये सिर्फ कल्पना की बात होते, यथार्थ की नहीं ।। आने वाली पीढ़ी विश्वास ही नहीं कर पाती कि कभी ऐसा भी महामानव इस पृथ्वी तल पर हुआ होगा ।।
हममें से यदि कोई प्रयास करे, तो आचार्य श्री से संबंधित ऐतिहासिक सामग्री का भण्डार भरा पड़ा है, जिसके कि आधार से चारित्र - चक्रवर्ती के द्वितीय खण्ड का प्रकाशन और अधिक गरिमामय ढंग से हो सकता है ।।
यद्यपि आज पंडित जी नहीं है, किन्तु यदि वे होते, तो हम उनसे आगे कहे दो विषयों में एक का संशोधन व दूसरे को अपने संस्करण में स्थान देने की विनती करते ।।
हमें आज भी पूर्ण विश्वास है कि ये अथवा इसी प्रकार के अन्य विषय जो चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर्जी के मिशनों से संबंधित थे, उन्हें यदि हम उदारमना पंडित जी के सम्मुख रखते, तो जैसे उन्होंने बाद के संस्करणों को स्वयं संपादित करते हुए पूर्व प्रकाशित कुछ विषयों को छाँट कर पृथक किया है व कुछ नवीन संस्मरणों व विषयों को अपनी पुस्तक में स्थान दिया है, उसी प्रकार इन विषयों के साथ भी न्याय करते ।
१९५३ अथवा बाद के संस्करणों में जो छप गया वह अंतिम था, ऐसी मान्यता निश्चित ही पंडितजी की थी ही नहीं ।।
उन दो विषयों में से प्रथम विषय ऐतिहासिक दस्तावेज से संबंधित है व दूसरा हरिजन टेंपल एन्ट्री एक्ट के इतिहास से ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org