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६ : भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार ]
बाद में होने वाले धुरंधर जैन आचार्यों ने भी जैन धर्म को निवृत्तिप्रधान स्वरूप की मर्यादा में क्यों बाँध रखा ? यह और इसके जैसे दूसरे बहुत से प्रश्न उपस्थित होते हैं । लेकिन उन सबका उत्तर संक्षेप में इतना ही है कि भगवान् महावीर के पुरुषार्थ की दिशा सामाजिक जीवन के बारे में उपदेश देने अथवा उसका निर्माण करने की नहीं थी । जो सामाजिक जीवन प्रवृत्तिधर्म के ऊपर संगठित और रचा हुआ था वह तो चालू ही था । परन्तु उस धर्म के एक हिस्से के तौर पर त्यागी जीवन के स्वरूप, अधिकार या आचरण में जो विकृतियाँ, शिथिलताएँ और गलतफहमियाँ दाखिल हो गई थीं, उनका अपने वैयक्तिक आचरण से संशोधन करना महावीर का जीवन-धर्म था । अथवा यों कह दें कि जैसे कोई सुधारक पुरुष सिर्फ ब्रह्मचर्याश्रम तक का ही सुधार अपने हाथ में ले या कोई दूसरा सिर्फ गृहस्थाश्रम तक का ही सुधार अपने हाथ में ले, उसी तरह भगवान् महावीर ने त्याग आश्रम का सुधार करने का ही काम अपने हाथ में लिया ।
निवृत्तिधर्म सर्वांशी धर्म कैसे माना जाय ?
जिस तरह संसार में अकसर देखा जाता है कि किसी सुधारक अथवा महान् पुरुष की प्रवृत्ति उसके देश, काल और ऐतिहासिक परिस्थिति के अनुसार एक अंश तक ही सीमित होती है, परन्तु वही प्रवृत्ति संप्रदाय का रूप प्राप्त करके पूर्ण और सर्वांशी मानी जाने लगती है, उसी प्रकार भगवान् महावीर आदि तीर्थंकरों के असाधारण व्यक्तित्व की प्रतिध्वनि स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में पड़ते ही उनका त्यागी जीवनप्रधान सुधार समग्र समाज-धर्म के रूप में समझा जाने लगा और इस महान् विभूति के प्रति रही हुई असाधारण परन्तु एकदेशीय भक्ति ने बाद में आने वाले अनुगामियों को सामाजिक जीवन के अन्यान्य पहलुओं के बारे में पूर्ण रूप से एवं खुले दिल से विचार करने से रोका । भगवान् का जो जैनधर्म अत्यंत आध्यात्मिक होने के कारण से समग्र समाज के साथ पूर्ण रूप से मेल खाने वाला नहीं था और जो इस तरह से वैयक्तिक धर्म ही था, उस धर्म को सांप्रदायिक रूप मिलते ही उसका सामाजिक जीवन के साथ पूरी तरह से मेल बिठाने का प्रश्न बाद वाले अनुयायिओं और
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