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७ : भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार ]
और निवृत्तिधर्म अर्थात् एकाश्रम धर्मं । निवृत्तिधर्म में केवल एक संन्यास की मान्यता है । इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रम का स्थान ही नहीं है । इसका अर्थ केवल इतना ही समझना चाहिए कि निवृत्तिधर्म में जाति, आयु इत्यादि का विशेष विचार नहीं करके चाहे जिस जाति और चाहे जिस उम्र के स्त्रीपुरुष हों, सबके लिए समानरूप से त्याग और संन्यास का उपदेश दिया जाता है । इस धर्म के अनुसार औत्सर्गिक जीवन त्याग का ही माना जाने के कारण जो कोई गृहस्थाश्रम में पड़े अथवा सांसारिक प्रवृत्ति को स्वीकार करे तो अपवाद रूप में ही स्वीकार करे । उसका यह स्वीकार निवृत्तिधर्म के हिसाब से सिर्फ लाचारी गिनी जायेगी जीवन में क्रमप्राप्त आवश्यक धर्म नहीं । इसके विपरीत चतुराश्रम धर्म में उम्र के क्रम से ही प्रवृत्ति या निवृत्ति स्वीकार करने का मौका आता है । ब्रह्मचर्याश्रम का उल्लंघन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना या ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम में गये बिना ही संन्यासमार्ग में जाना प्रवृत्तिधर्म में वर्ज्य और अधर्म्य समझा जाता है । ब्रह्मचर्य आश्रम में से बाल अथवा कौमार्य अवस्था में से कोई सीधा संन्यास मार्ग ले तो वह निवृत्तिधर्म के अनुसार स्वाभाविक ही समझा जायगा क्योंकि वह क्रम वर्ज्य नहीं है बल्कि वही क्रम मुख्य रूप से धर्म्य समझा जाता है, जब कि प्रवृत्तिधर्म के हिसाब से यह क्रम बिल्कुल वर्ज्य और अधर्म्य है । प्रवृत्तिधर्म में संन्यास को स्थान है और प्रतिष्ठित स्थान है, परन्तु यह स्थान जीवन क्रम में अमुक वक्त पर ही आता है, चाहे जब नहीं; जब कि निवृत्तिधर्म में त्याग का स्थान और उसकी प्रतिष्ठा समग्र जीवनव्यापी है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्मों के उक्त दृष्टिबिन्दु एक दूसरे के विरोधी होने के कारण उनके परिणाम भी समाज पर अलग-अलग अंकित हुये हैं, और आज भी अलग-अलग ही दिखलाई देते हैं ।
जैन हो अथवा जैनेतर, कोई भी विचारक गत दो-तीन हजार वर्ष का कोई जैन - साहित्य, जैन-जीवन अथवा जैन मानस का अवलोकन करेगा तो उसको यह निःसन्देह मालूम होगा कि जैनधर्म की परम्परा निवृत्तिधर्म की एक खास परम्परा है । अब प्रश्न यह होता है कि जैनधर्म का जो निवृत्तिप्रधान स्वरूप दिखाई देता अथवा
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