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२२ : चार तीर्थंकर ]
खयाल नहीं रहता जिससे वह एक भाड़े के और अकर्मण्य परावलम्बी वर्ग से अपना रचा हुआ वाक्य सुनना पसन्द करता है । क्या यह बात भद्दी नहीं लगती ? परन्तु इस वर्णन में हेमचन्द्र का लेशमात्र भी दोष नहीं है । वे तो एक कल्पनासमृद्ध और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । वे खुद जिन संस्कारों से दीक्षित हुए और जिन संस्कारों में उनका पोषण हुआ, उनका कवित्वमय चित्रण उन्होंने किया था । इस पर से अगर हम यह समझ लें कि निवृत्तिधर्म की एकदेशीयता ने प्रवृत्तिधर्मं को कितना विकृत बना दिया तो हमारे लिए. काफी है ।
भरत और बाहुबली
जिनसेन या हेमचन्द्र के काव्यमय वर्णन में अनेक ज्ञानप्रद बातें मिलती हैं । उनमें भरत - बाहुबली से सम्बद्ध एक बात पर सरसरी नजर हम डालें, जो इस वक्त बिल्कुल प्रासंगिक है । दोनों भाई लड़ाई में उतरे। आमने-सामने बड़ी-बड़ी फौजों के मोर्चे बने । अनेक तरह के संहार - प्रतिसंहार के बाद आखिर इन्द्र की दी हुई सलाह को दोनों ने माना । वह सलाह यह थी कि भाई ! लड़ना हो तो लड़ो, पर ऐसे लड़ो कि जिससे तुम्हारी लड़ाई की भूख भी मिट जाय और किसी का नुकसान भी न हो । सिर्फ तुम दोनों आपस में लड़ो' । इस सलाह के अनुसार उनके पाँच युद्ध निश्चित हुएजिनमें चक्र और मुष्टि-युद्ध जैसे युद्ध तो हिंसक थे पर साथ-साथ अहिंसक युद्ध भी थे । इन अहिंसक युद्धों में दृष्टि-युद्ध और नाद- युद्ध आते हैं । जो जल्दी आँख बन्द कर ले या निर्बल आवाज करे, वह्न
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तथापि प्रार्थ्य से वीर !
प्रार्थनाकल्पपादप ! |
युवयोरुग्रतेजसोः ।
उत्तमेनैव युद्धेन युध्येथा माऽधमेन तु ।। ५१५।। अधमेन हि युद्धेन भूयिष्ठलोकप्रलयादकाले प्रलयो दृष्टियुद्धादिभिर्युद्धैर्योद्धव्यं साधु तेषु हि ।
भवेत् ॥५१६॥
आत्मनो मानसिद्धिः स्यात् लोकानां प्रलयो न च ॥ ५१७॥
- त्रिषष्टि १०५
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