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चार तीर्थंकर : १२६
उन्होंने कहीं भी उन निग्रंथों के मौलिक आचार एवं तत्वज्ञान की जरा भी अवहेलना नहीं की है; प्रत्युत निर्ग्रन्थों के परम्परागत उन्हीं आचार-विचारों को अपनाकर अपने जीवन के द्वारा उनका संशोधन, परिवर्धन एवं प्रचार किया है । इससे हमें मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि, महावीर पार्श्वनाथ की परम्परा में ही दीक्षित हुए- फिर भले ही वे एक विशिष्ट नेता बने । महावीर तत्कालीन पारवपित्यिक परंपरा में ही हुए, इसी कारण से उनको पार्श्वनाथ के परंपरागत संघ, पार्श्वनाथ के परंपरागत आचारविचार तथा पार्श्वनाथ के परंपरागत श्रुत विरासत में मिले, जिसका समर्थन नीचे लिखे प्रमाणों से होता है ।
संघ
भगवती १-६-७६ में कालासवेसी नामक पारवपित्यिक का वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि, वह किन्हीं स्थविरों से मिला और उसने सामायिक, संयम, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, विवेक आदि सम्बन्धी मुद्दों पर प्रश्न किये । स्थविरों ने उन प्रश्नों का जो जवाब दिया, जिस परिभाषा में दिया और कालासवेसी ने जो प्रश्न जिस परिभाषा में किये हैं, इस पर विचार करें तो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि, वे प्रश्न और परिभाषायें सब जैन परिभाषा से ही सम्बद्ध हैं । थेरों के उत्तर से कालासवेसी का समाधान होता है तब वह महावीर द्वारा नवसंशोधित पंचमहाव्रत और प्रतिक्रमणधर्म को स्वीकार करता है । अर्थात् वह महावीर के संघ का एक सभ्य बनता है ।
भगवती ५-६ - २२६ में कतिपय थेरों का वर्णन है । वे राजगृही में महावीर के पास मर्यादा के साथ जाते हैं, उनसे इस परिमित लोक में अनन्त रात-दिन और परिमित रात-दिन के बारे में प्रश्न पूछते हैं । महावीर पार्श्वनाथ का हवाला देते हुए जवाब देते हैं, पुरिसादाणीय पार्श्व ने लोक का स्वरूप परिमित ही कहा है । फिर वे अपेक्षाभेद से रात-दिन की अनन्त और परिमित संख्या का खुलासा करते हैं | खुलासा सुनकर थेरों को महावीर की सर्वज्ञता
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