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चार -- . : १३१ उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन में पाश्र्वापत्यिक निग्रथ केशी और महावीर के मुख्य शिष्य इन्द्रभूति-दोनों के श्रावस्ती में मिलने की और आचार-विचार के कुछ मुद्दों पर संवाद होने की बात कही गई है। केशी पापित्यिक प्रभावशाली निर्ग्रन्थ रूप से निर्दिष्ट हैं; इन्द्रभूति तो महावीर के प्रधान और साक्षात् शिष्य ही हैं । उनके बीच की चर्चा के विषय कई हैं, पर यहाँ प्रस्तुत दो हैं। केशी गौतम से पूछते हैं कि, पार्श्वनाथ ने चार याम का उपदेश दिया, जब कि वर्धमान-महावीर ने पांच याम-महाव्रत का, सो क्यों ? इसी तरह पार्श्वनाथ ने सचेल-सवस्त्र धर्म बतलाया, जबकि महावीर ने अचेल-अवसन धर्म, सो क्यों ? इसके जवाब में इन्द्रभूति ने कहा कि, तत्त्वदष्टि से चार याम और पाँच महाव्रत में कोई अन्तर नहीं है, केवल वर्तमान युग की कम और उलटी समझ देखकर ही महावीर ने विशेष शुद्धि की दृष्टि से चार के स्थान में पाँच महाव्रत का उपदेश किया है और मोक्ष का वास्तविक कारण तो आन्तर ज्ञान, दर्शन और शुद्ध चारित्र ही है, वस्त्र का होना, न होना यह तो लोकदृष्टि है। इन्द्रभूति के मूलगामी जवाब को यथार्थता देखकर केशी पंचमहाव्रत स्वीकार करते हैं और इस तरह महावीर के संघ के एक अंग बनते हैं।
__ऊपर के थोड़े से उतारे इतना समझने के लिये पर्याप्त हैं कि महावीर और उनके शिष्य इन्द्रभूति का कई स्थानों में पापित्यिकों से मिलन होता है। इन्द्रभूति के अलावा अन्य भी महावीर-शिष्य पापित्यिकों से मिलते हैं। मिलाप के समय आपस में चर्चा होती है। चर्चा मुख्य रूप से संयम के जूदे-जूदे अंग के अर्थ के बारे में एवं तत्त्वज्ञान के कुछ मन्तव्यों के बारे में होती है । महावीर जवाब देते समय पार्श्वनाथ के मन्तव्य का आधार भी लेते हैं और पार्वनाथ को "पुरिसादाणीय" अर्थात् "पुरुषों में आदेय" जैसा सम्मानसूचक विशेषण देकर उनके प्रति हार्दिक सम्मान सूचित करते हैं और पार्व के प्रति निष्ठा रखने वाले उनकी परम्परा के निर्ग्रन्थों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। पाश्र्वापत्यिक भी महावीर को अपनी परीक्षा में खरे उतरे देखकर उनके संघ में दाखिल होते हैं; १. उत्तराध्ययन, अ० २३, श्लोक २३-३२ ।
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